मेरे तो मजे है

मुझे लगा..वाह मजे ही मजे हैं आराम करो।
बैठे बैठे सामने ही खाना हाजिर। वाह मेरी तो जैसे लॉटरी ही खुल गई ।
जी हाँ ऐसा ही कुछ लगा मुझे समझ तो कुछ थी नहीं ,हाँ डर जरूर लगा हल्का सा कि यह क्या हो गया मेरे साथ। पर माँ के प्यार से यह कह देने से तसल्ली भी हो गई कि सबके साथ होता है ऐसा डरने की कोई बात नहीं है।
दादी पुराने विचारों की थी तो तब घर में नियम था 3 दिन रसोई में नहीं जाना है ।मैं यही कोई 12-13 साल की रही होगी ,माँ ने सब समझा दिया।
बेटा ,रसोई घर में नहीं आना है। कुछ चाहिए तो मुझे बताना और तुम आराम करो। उस समय तो यही लगा कि चलो मजे है 3 दिन कोई काम नहीं खाना, पानी सब बैठे बैठे
पर यह तो बचपना था ना, बाद में यह सब कैद लगने लगा । क्यों मैं खुद एक गिलास पानी भी नहीं ले सकती ?
भागो दौड़ो मत , खेलो मत, और सहेलियां खेलने के लिए बुलाने आए तो ,यह भी मत बताओ क्यों क्यों नहीं खेलने जा रही। जैसे-जैसे समझ बढ़ने लगी लगने लगा जैसे मैं कोई अछूत हूं।
अब तो जरूरत ना होती तो भी जरूर जाती किचन में। माँ तो ज्यादा कुछ ना कहती, पर मेरी वजह से माँ को दादी की डांट पड़ जाती। कि तुझसे यह लड़की समझाई नहीं जाती ।
आ देख अपनी लाडली को... पूराअचार का डिब्बा ही उठा लिया। अब जब सारा अचार खराब हो जाएगा तो रोना।
दादी माँ पर चिल्लाती और मेरी नजर अचार पर ही रहती ।
और जब काफी समय बाद भीअचार खराब ना हुआ। तो मैं दादी से कहती आप तो कह रही थी अचार खराब हो जाएगा यह तो खराब नहीं हुआ। बस ...इस लड़की से तो बहस करा लो दादी गुस्सा करती और मैं खी ...खी
खैर दादी के बाद धीरे-धीरे सब पाबंदियां हटती चली गई ।दादी के बाद एक बार जब मैंने माँ से पूछा क्यों मानती थी आप इतनी पाबंदियां?इतनी पढ़ी-लिखी होने के बाद भी ।क्यों नहीं विरोध करती थी उनकी दकियानूसी बातों का ? उनका जवाब था बेटा उस उम्र वे यह सब बातें नहीं समझ सकती थी। उन्हें तो वही सही लगता था जो वे देखती और करती आई थी । और मुझे इन छोटी-छोटी बातों को लेकर घर में कलह करना सही नहीं लगता था। इसलिए मैं उनकी बात मान लेती थी।
शायद दादी की पीढ़ी में शिक्षा का अभाव था। जो यह सब रिवाज बनाए गए ।
नहीं तो क्या? उस जमाने में हम अपने फर्स्ट पीरियड की स्टोरी लिख सकते थे। बाप रे !लिखना तो दूर बात भी नहीं कर सकते थे।
तो यह मेरा अनुभव था आप भी अपने अनुभव साझा कीजिए!
#Myfirstperiod
अनु गुप्ता
Pink Columnist
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