बचपन और रिक्शे का सफर

बचपन और रिक्शे का सफर

बचपन की सुनहरी शरारती यादें, जब तब आकर बरबस
ही होठों पर मुस्कान बिखेर जाती हैं। ऐसा ही एक शरारती किस्सा मैं यहां साझा कर रही हूं।

हमारा सीनियर सेकेंडरी स्कूल घर से लगभग 3-4 किलोमीटर की दूरी पर था। यह किस्सा सेवंथ क्लास का है। मैं और मेरा भाई एक ही क्लास में थे। हम दोनों को स्कूल जाने के लिए किराए का ₹1 मिलता था। यानी कि 50 पैसे उसके और 50 पैसे मेरे। पॉकेट मनी का तो उस समय कोई नामोनिशान नहीं था। हम पैसे बचाने के लिए या तो पैदल जाते या एक समय बस ले लेते। हम दोनों के दोस्त
भी साझा थे। एक से बढ़कर एक शरारती।
एक बार स्कूल से आते हुए हमें पैसे बचाने का एक तरीका सूझा। हमने सड़क पर चलते हुए, एक रिक्शेवाले को रोका और उससे कहा
"भैया आप अगर इस रास्ते पर ही आगे जा रहे हो तो हमें छोड़ दो प्लीज। हमारे पास पैसे नहीं हैं।"
उस समय आज जैसा माहौल नहीं था। माता-पिता में भी बच्चों को लेकर कोई असुरक्षा की भावना नहीं थी इसलिए हम भी बेफिक्र थे।
हां ,तो उस रिक्शावाले को हम मासूमों पर शायद दया आ गई और उसने हमें थोड़ी दूरी तक छोड़ दिया।
हमने उसे थैंक्यू बोला और उसके जाते ही अपने प्लान की कामयाबी पर हम खूब हंसे। अब तो जब हमारा मन करता हम ऐसे ही मासूमियत से रिक्शावाले को रोकते और वह हमें घर तक या उससे पहले छोड़ देता।
एक बार हमने जिस रिक्शेवाले को रोका। वह रिक्शा बहुत ही सुंदर सजा हुआ था। शायद नया था। उसने भी हमारे कहने पर हमें बैठा लिया।
बाय गॉड उस रिक्शा में बैठ बिल्कुल राजा वाली फीलिंग आ रही थी हम सबको। हम अपने घर से कोई आधा किलोमीटर पहले उतरकर जाने लगे तो उस रिक्शेवाले ने कहा  "किराया तो दो।"
सुनते ही हमारे तो चेहरे का रंग उड़ गया। क्योंकि आज ही लंचटाइम में हमने अपने किराए के पैसों के समोसे की दावत उड़ाई थी। हमने बड़ी मासूमियत से उससे कहा "भैया पैसे तो हमारे पास नहीं है।"
इस बात पर वह गुस्सा हो गया और बोला "चलो अपने घर ले चलो। वहां से किराया दिलवाना।"
यह सुनते ही हमारे होश उड़ गए कि आज तो हमारी खैर नहीं। हमारी सारी पोल खुल जाएगी और घरवाले हमें खूब पीटेंगे। चारों एक दूसरे का मुंह देखने लगे। भाई ने आंखों ही आंखों में इशारा किया और हम चारों ने आव देखा ना ताव पास वाली कॉलोनी की अलग अलग गलियां पकड़ी और अंधाधुंध दौड़ लगा दी। रिक्शेवाला भी हमारे पीछे भागा। लेकिन हम जल्दी ही उसकी पहुंच से दूर निकल गए। उस दिन के बाद तो हम सबने रिक्शा क्या, कहीं भी मुफ्त खोरी से तौबा कर ली।
इन बातों को लगभग 25 साल हो गए हैं। जब भी कभी हम
सब मिलते हैं तो इस बात को याद कर आज भी हंसते हंसते लोटपोट हो जाते हैं। सच कितने खूबसूरत होते हैं बचपन की यादों के साए।
सरोज ✍️

# यादों का पिटारा

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