हाँ मैं स्त्री हूँ,जीती हूँ, धरा पर ले अनेक रूप

स्त्री तेरे रूप अनेक
स्त्री से किसी ने पूछा
बताओ बताओं तुम्हारे रूप,
स्त्री बोली मेरे है कई रूप,
सृष्टि समाई हुई मुझमे मैं हूँ प्रतिरूप ,
मुझसे ही तो बनता जग का रूप।
स्त्री हूँ मैं एक पर नाम है अनेक,
मैं माँ, बेटी,बहन, नानी, दादी ,
बुआ, चाची ,ननद, मासी, ताई,
मुझमें ही समाया है धरा का रूप,
मुझमें ही समाये है सारे स्वरूप।
विद्या की दायनी सरस्वती कहलाती
तू धन की दायनी लक्ष्मी भी कहलाती
नारी तू है एक,पर तेरे नाम है अनेक,
सदैव रही तू समर्पिता मन तेरा मधुप,
चंचल मन तन भी चंचल ममता का तू रूप।
नदी सी है स्त्री बहती अविरल धारा सी,
जीवन के रिश्तों में भरती अमृत धारा सी,
मिलती सागर की तरह घर की लहरों में,
सृष्टि की जननी है तू प्रेम रूप तेरा अनूप,
तू ही दुर्गा तू सरस्वती तू लक्ष्मी का रूप
अन्नपूर्णा,अर्पिता सहनशीलता तुझमे अखंड,
शक्तिरूपा, ममता की मूरत है भी वो स्त्री,
जया पराजया भी तू वंदनीय पूजनीय है तू,
दीप जला विश्वास के तू दीप्ति के है अनुरूप,
सुबह तू उषा शाम को संध्या सुहाना तेरा रूप।
उषा, संध्या, मिलन रात्रि का तू बन जाती निशां,
निद्रा की गोद में बन सपना ले भ्रभित कर मन ,
भावना में बह कर रचती है तब कहानी कविता,
तेरे है रूप अनेक तू लगती मद्धम मद्धम सी धूप,
हाँ मैं स्त्री हूँ,जीती हूँ, धरा पर ले अनेक रूप। ।
डा राजमती पोखरना सुराना भीलवाड़ा राजस्थान
What's Your Reaction?






