जीवन दान

माँ की ज़िद के समक्ष इस बार आख़िर मुझे झुकना ही पड़ा ।उन्होंने दिल्ली में अपनी एक सहेली की लड़की को मेरे लिएपसंद किया था ।माँ दीदी के साथ दिल्ली पहुँच गयीं थीं ।मैंने भी अनमने मन से मुंबई से दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली ।
ट्रेन धीरे-धीरे अपनी रफ़्तार पकड़ रही थी ।संध्या धीरे -धीरे रात के आग़ोश में समा रही थी ।इतने वर्षों पश्चात दिल्ली जाना हो रहा था ,मेरा हृदय अतीत की यादों में भटकने लगा ।देविका और मैं दिल्ली में कॉलेज में एक साथ पढ़ते थे ।' झाँसी कीरानी ' के नाम से प्रसिद्ध थी वो ।किसी भी तरह के अन्याय के ख़िलाफ़ तुरंत मोर्चा खोल देती ।ख़ास तौर पर मनचलेलड़कों को तो अच्छा सबक़ सिखाती ।कज़रारी आँखें ,गौर वर्ण उसपर उसके काले घने केदश और इकहरा बदन ,कुलमिला कर अद्वित्य सौंदर्य की स्वामिनी थी वो ।
मैं तो पहली ही दृष्टि में मंत्रमुघ्द्ध हो उसके प्रेम के मोहपाश में बंध गया था ।पर झाँसी की रानी के समक्ष इज़हार करने का साहस मुझमें नहीं था ।दिन ऐसे ही बीत रहे थे ।एक दिन तपती दोपहरी मेंवो बस का इंतज़ार कर रही थी ।साहस जुटा कर मैंने उसे अपनी बाइक पर उसे घर छोड़ने का निमंत्रण दिया ।
आशा के विपरीत उसने सहर्ष स्वीकार लिया ।धीरे -धीरे बातों मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ कर प्यार में तब्दील होगया ।उस दिन मेरी अंतिम वर्ष की अंतिम परीक्षा थी जब मुझे अचानक पिता जी की अकस्मात् हृदयघात से मृत्यु होने केकारण मुझे अपने घर कानपुर वापिस आना पड़ा ।देविका से मिल कर उसे कुछ बताने का मौक़ा ही नहीं मिला ।
पिता जी सभी कार्यों से निर्वृत हो कर मैंने देविका को फ़ोन किया तो वो मुझपर बरस पड़ी फिर मैंने उसे सारी बात बतायी तो वो शांत हो गयी ।उसने मुझसे वापिस आने के विषय में पूछा तो मैंने चुप्पी साध ली ।अब हमारी बातें सिर्फ़ फ़ोन पर होती ।किंतु एम.बी.ए की पढ़ाई ,माँ और घर को सम्भालने की व्यस्ता में देविका पीछे छूटती जा रही थी ।ज़िंदगी की इसी ऊहापोह में देविका से फ़ोन पर बात भी बहुत कम हो गयी थी ।एक दिन उसने मुझे फ़ोन पर बताया की उसके घरवाले उस पर विवाह का दबाव डाल रहें हैं ।वो बोली ," समीर तुम मुझसे शादी करोगे ना ।तुम हाँ कह दो तो मैं इंतज़ार करने को तैयार हूँ "
" देविका ...अभी मेरी शादी नही हो सकती ।पिता जी के जाने के बाद मेरी ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गयीं हैं ।पहले दीदी की करनीहैं ।मुझे भूल जाओ देविका ।मुझे माफ़ कर देना देविका "
" बेवफ़ा ....आइ हेट यूँ समीर " कह कर रोते रोते उसने फ़ोन रख दिया ।उसके फ़ोन रखते ही न जाने कितना रोया था मैं ।देविका से मैं हृदय की गहराइयों से निसवार्थ प्रेम करता था मैं ।वो मेरा जीवन थीं ।मैं जानता था की निकट कुछ वर्षों तक मेरा विवाह बंधन में बँधना मुमकिन नही था इसलिए अपने स्वार्थ के कारण मैं उसके साथ अन्याय नहीं कर सकता था ।अतः परिस्थितियों वश कठोर बन मैंने उसका हृदय तोड़ा ताकि वो अपने जीवन में अपने जीवन साथी के साथ खूब खुश रहे।हृदय से सिर्फ़ और सिर्फ़ उसकी ख़ुशी की दुआयें माँगते हुए मैंने सदा के लिए उसके अपने हृदय में सहेज लिया ।
" एक्सक्यूज़ मी ......ये मेरी सीट है " की आवाज़ मुझे वापिस वर्तमान में ले आयी ।
" ओह ......सौरी " कह कर मैंने उसकी सीट से पाँव हटा लिए ।जैसे ही हमने एक दूसरे को देखा तो हम वही जड़वत हो गए।इतने वर्षों पश्चात देविका से मुलाक़ात होगी और वो भी ऐसे ,इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी ।उसके साथ शायद उसके पति थे ।हमारे बीच औपचारिकता के नाम पर भी कोई बातचीत नहीं हुई ।अजनबियों के समान बैठे थे हम ।उस समय एक एक पल युगों के समान प्रतीत हो रहे थे ।देविका को किसी और के साथ देख कर अपनी मनोदशा की व्याख्या करना मुश्किल था ।नियति भी अजीब खेल खेल रही थी मेरे साथ ।
अगले दिन अपनी पीड़ा तो हृदय में दबाए ,माँ के ख़ातिर ,मैं नियत समय पर उनके साथ लड़की के घर पहुँचा ।आँखें अभी भी नम थीं ।मैं अपना चेहरा नीचे किए बैठा था की अचानक " आप चाय तो पीते नहीं ,तो इसलिए आपके लिए कॉफ़ी लायीं हूँ " की आवाज़ सुन कर मैंने अपना चेहरा ऊपर कर देखा तो देविका को देख कर मैं किंकर्तव्यविमूढ हो गया ।माँ ,दीदी सभी हँस रहे थे ।मेरी तो कुछ समझ नहीं आ रहा था ।दीदी मेरे पास आयी और बोली ," क्यूँ समीर कैसा लगा सरप्राइज़ .......पगले तूने मेरे लिए अपने प्रेम की क़ुर्बानी दे दी ।तूने क्या सोचा हम तुझे यूँही घुट -घुट कर मरने देंगे "
"पर यह सब हुआ कैसे ...? और देविका ...देविका की तो शादी हो चुकी है ।यह मेरे साथ ट्रेन में अपने पति के साथ मेरी सामने वली सीट पर बैठी थीं ...और ..."
" देविका ने भी अभी तक शादी नहीं की है ।वो भी तुमसे उतना ही प्यार करती है जितना की तुम ।वो लड़का जो इसकेसाथ था वो इसका पति नहीं दोस्त था "
"पर दीदी तुम्हें पता कैसे चला "
" तेरे दोस्त आशु से ।तु किसी से प्रेम करता है इसका अनुमान तो था मुझे ।बस मैंने तेरे फ़ोन से आशू का नंबर लिया ।उसने सारी बात बतायी ।फिर मैंने और तेरे जीजा जी ने आशु की मदद से देविका का पता लगाया ।उससे बात कर केउसकी सारी ग़लत फ़हमी दूर की ।और फिर तुझे सरप्राइज़ देने के लिए ये सब नाटक किया "
"पर देविका ट्रेन में ....."
" वो भी नाटक का ही हिस्सा था ।देविका भी मुंबई में जॉब करती है ।वो भी मुम्बई से ट्रेन में बैठी थी ।पहले कुछ देर वो दूसरे कोमपर्टमेंट में थीं फिर वो अपनी रीसर्व सीट पर यानि तुम्हारे पास आ कर बैठ गयी ।अब बोलो कैसा लगा ....." कहकर सब हंसने लगे ।
मेरे तो कदम ही ज़मीं पर नहीं थे।मुझे मेरा प्यार मिलेगा ,मैंने कभी कल्पना भी नही की थीं ।
" दीदी आपने तो मुझे मेरी साँसे ,मेरी आत्मा लौटा कर मुझे जीवन दान दे दिया ।" मैं बस ख़ुशी में इतना ही कह पाया औरमैंने फिर देविका का हाथ पकड़ लिया कभी न छोड़ने के लिए ।
--कीर्ति जैन
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