कौन थे जगत सेठ? जिनसे अंग्रेज भी कर्ज लेते थे

कौन थे जगत सेठ? जिनसे अंग्रेज भी कर्ज लेते थे

भारत आज भले ही विकसित देशों की तरह साधन संपन्‍न न हो, लेकिन इस देश ने ऐसा सुनहरा दौर भी देखा है जब यह पूरी तरह साधन संपन्‍न था और इस देश को सोने की चिडिय़ा कहा जाता था.यही कारण था कि कई सदियों तक इस देश को विदेशी अक्रांताओं द्वारा लूटा गया,हालांकि इसके बाद भी हमारे इतिहास में कुछ ऐसे नाम भी दर्ज हैं जो राजा-महाराज न होने के बाद भी अपने धन-दौलत के बल पर राज करते थे।

ऐसे ही एक व्‍यक्ति थे मुर्शिदाबाद के जगत सेठ, जिन्‍हें सेठ फतेहचंद के नाम से भी जाना जाता था। आज के समय में भले ही बंगाल का मुर्शिदाबाद शहर गुमनामी में जी रहा हो, लेकिन उस समय यह हर किसी के लिए व्यापारिक केंद्र हुआ करता था. हर तरफ इसी स्थान के चर्चे हुआ करते थे, शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हुआ हो उस समय जो इस स्थान और जगत सेठ के बारे में न जानता हो। कहा जाता है कि एक समय इनके पास इतना पैसा था, जिनता इंग्‍लैंड के सभी बैंकों के पास नहीं था.

कौन थे जगत सेठ?

जगत सेठ एक टाइटल है जो फ़तेह चंद को मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह ने 1723 में दिया था,जिसके बाद इस पूरे परिवार को जगत सेठ के नाम से जाने जाने लगा. इस घराने का संस्‍थापक सेठ मानिक चंद को माना जाता है।

बताया जाता है कि जगत सेठ महताब राय के पूर्वज मारवाड़ के रहने वाले थे,1495 ई. में गहलोत राजपूतों में से गिरधर सिंह गहलोत ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था. इस परिवार के हीरानन्द साहू 1652 ई. में मारवाड़ छोड़ पटना में आ बसे थे, पटना उन दिनों व्यापार का एक बड़ा केन्द्र हुआ करता था यहां हीरानन्द साहू ने शोरा का कारोबार शुरू किया. उन दिनों योरोपियन शोरा के सबसे बड़े ख़रीदार हुआ करते थे,शोरा व्यापार के साथ-साथ साहू ने ब्याज पर कर्ज देने के काम को भी बढ़ाया था और जल्दी ही उनकी गिनती धनवान साहूकारों में होने लगी थी. हीरानन्द साहू के सात बेटे थे, जो व्यापार करने के लिए इधर-उधर बिखर गये उनके एक बेटे माणिक चन्द ढाका आ गये जो उस जमाने में बंगाल की राजधानी हुआ करती थी.

जगत सेठ के कार्य

जगत सेठ ने अपनी कोठियाँ ढाका, (बांग्ला देश), पटना और मुर्शिदाबाद में स्थापित की थी, उसकी कोठी से रुपयों का लेन-देन तो होता ही था, वह बंगाल की सरकार के भी कई कार्यों को पूर्ण करने का काम करती थी.प्रान्तीय सरकार की तरफ़ से मालगुज़ारी वसूल करना, शाही खज़ाने को दिल्ली भेजना, सिक्के की विनिमय दर तय करना आदि भी जगत सेठ की ही ज़िम्मेदारी थी.

जगत सेठ की उपाधि

फ़तेहचंद्र (जगत सेठ) के बाद उसका पौत्र 'महताबचंद्र' दूसरा जगत् सेठ बना जब नवाब सिराजुद्दौला ने उसे अपमानित किया, तो वह अंग्रेज़ों के पक्ष में चला गया और प्लासी की लड़ाई से पहले और बाद में रुपये पैसों से उनकी बड़ी मदद की. मीर ज़ाफ़र के नवाब होने पर उसे फिर सम्मान प्राप्त हो गया था, और जगत सेठ का नाम एक महत्त्वपूर्ण उपाधि बन चुका था.किंतु मीर क़ासिम ने गद्दी पर बैठते ही उसकी वफ़ादारी पर संदेह करके 1763 ई. में उसे मरवा डाला इसके बाद ही बंगाल का शासन अंग्रेज़ों के हाथ में आ गया और उन्होंने ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के ऊपर जगत सेठ का कोई कर्ज़ होने से इंकार कर दिया.

दरअसल माणिक चन्द ही थे जिन्होंने बंगाल के जगत सेठ परिवार की बुनियाद रखी थी, मुर्शिद क़ुली ख़ां बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबेदार और माणिक चंद एक दूसरे के गहरे दोस्त थे.माणिक चंद न सिर्फ नवाब मुर्शिद क़ुली ख़ां के ख़जांची थे बल्कि सूबे का लगान भी उनके पास जमा होता था,दोनों ने मिल कर बंगाल की नयी राजधानी मुर्शिदाबाद बसायी थी और औरंगज़ेब को एक करोड़ तीस लाख की जगह पर दो करोड़ लगान भेजा था।

1715 में मुग़ल सम्राट फ़र्रुख़सियर ने माणिक चंद को सेठ की उपाधि दी थी, इसके लिए एक बड़े से पन्ने पर जगत सेठ खुदवा कर सील बनवाई गयी थी, जो दूसरे दुर्लभ उपहारों के साथ शाही दरबार में फतेह चंद को पेश की गयी। इसके बाद ये परिवार जगत सेठ के नाम से जाना जाने लगा. माणिकचंद के बाद परिवार की बागड़ोर फ़तेह चंद के हाथ में आयी जिनके समय में ये परिवार बुलंदियों पर पहुंचा।

ढाका, पटना, दिल्ली सहित बंगाल और उत्तरी भारत के महत्वपूर्ण शहरों में इस घराने की शाखाएं थीं, लेकिन मुख्यालय मुर्शिदाबाद में था, इसका ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ लोन, लोन की अदायगी, सर्राफ़ा की ख़रीद-बिक्री आदि का लेनदेन था. इस घराने की तुलना बैंक ऑफ़ इंग्लैंड से की गई है।

आंकड़ों के मुताबिक, 1718 से 1757 तक ईस्ट इंडिया कंपनी जगत सेठ की फर्म से सालाना 4 लाख कर्ज लेती थी डच और फ्रेंच कंपनियों के साथ भारत के कई राजा-महाराज को भी यह फर्म कर्ज देती थी।

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