मधुशाला

पुस्तके पढ़ने का शौक मुझे बहुत पहले से ही है। चाहे पुस्तक कहानियों की हो, चाहे कविताओं की, सभी मुझे आकर्षित करती हैं। और मुझे अपनी ओर खींचती हैं। मैंने बहुत सी किताबें पढ़ी हैं। जो मनभावन होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी है। उन्हीं सब पुस्तकों में से मेरी बहुत ही प्रिय पुस्तक " मधुशाला " है।
जो महान लेखक व कवि श्री हरिवंश राय बच्चन जी ने लिखी थी। " मधुशाला " कविताओं का संग्रह है। जो कि हिंदी साहित्य की आत्मा का ही अंग बन गई है और कालजई रचनाओं की श्रेणी में आ खड़ी हुई है। " मधुशाला " में रुबाइयां हैं। रुबाई का शाब्दिक अर्थ है चौपाई। बच्चन जी की लिखी हुई कुछ रुबाइयां मैं मेरे इस लेख में लिख रही हूँ। जो मुझे प्रिय है। और इस " मधुशाला " पुस्तक में है -
लिखी भाग्य में जितनी बस
उतनी ही पाएगा हाला
लिखा भाग्य में जैसा बस
वैसा ही पाएगा प्याला
लाख पटक तू हाथ पांव पर
इससे कब कुछ होने का
लिखी भाग्य में जो तेरे बस
वही मिलेगी मधुशाला ।
" मधुशाला " के बहुत से पाठक एक समय समझा करते थे कि इसका लेखक दिन-रात मदिरा के नशे में चूर रहता होगा। तब बच्चन जी ने यह कहा कि वास्तविकता यह है कि " मदिरा " नामधारी द्रव से मेरा परिचय अक्षरशः ही है, वास्तविक रूप में नहीं। नशे से मैं इनकार नहीं करूंगा। जिंदगी ही एक नशा है। कविता भी एक नशा है। उन्होंने लिखा -
स्वयं नहीं पीता, औरों को
किंतु पिला देता हाला,
स्वयं नही छूता, औरों को
पर पकड़ा देता प्याला ,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों
से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को
पहुंचा देता मधुशाला।
जिस समय बच्चन जी ने " मधुशाला " लिखी थी, उस समय उनके जीवन और काव्य के संसार में पुत्र एवं संतान का कोई भावना - केंद्र नहीं था। अपनी तृष्णा की सीमा बताते हुए उन्होंने लिखा - " प्राण प्रिये, यदि श्राद करो तुम मेरा तो ऐसे करना ! "
अंत में एक रुबाई और -
पितृ पक्ष में पुत्र, उठाना
अर्ध्य न कर में, पर प्याला,
बैठ कहीं पर जाना गंगा -
सागर में भरकर हाला,
किसी जगह की मिटटी भीगे,
तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको
पढ़ - पढ़ करके " मधुशाला "।
आशा है सभी को मेरा ये ब्लॉग पसन्द आएगा।
आपकी दोस्त
© पुष्पा श्रीवास्तव
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