मानसिकताओं की धूल

रेल्वे स्टेशन के पूछताछ केंद्र के बाहर लंबी कतार थी।
क्या करूँ? पूछुं या थोड़ा इंतज़ार करूँ?
नहीं नहीं, सामान ज्यादा है! आखिरी समय में भागा दौड़ी हो जाएगी।
यही सब सोचते मैं, जाकर उस कतार में खड़ी हो गई। अमुमन महिलाओं के लिए कतार अलग होती है पर चूँकि ज्यादा भीड़ नहीं थी,तो मैंने सोचा, जिस लाइन में सारे पुरूष खड़े हैं, वहीं खड़ी हो जाती हूँ।
मुझे वहाँ खड़े देख,एक सज्जन ने कहा- मैडम, आप आगे जाकर अलग से खड़े हो जाइए, आपका काम जल्दी हो जाएगा। दूसरे ने कहा- अरे वाह! ये सही है ना,हम इतनी देर से यहां प्रतीक्षा कर रहे हैं पर महिलाओं के लिए अच्छा है, आओ, तुरंत पूछो और निकल जाओ। इन सज्ज्न के ऐसा कहते ही ,आस पास खड़े लोगों से उन्हें मिलीजुली प्रतिक्रिया मिली।
खैर, मैंने वही किया जो मुझे ठीक लगा और अपने सवाल का जवाब लेकर मैं बताए गए प्लेटफॉर्म की ओर चलने लगी।
ट्रेन में मेरे साथ वाली सीट पर एक और महिला यात्री थीं। उन्हें अपनी सीट बदलनी थी जिसके लिए उन्होनें हमारे साथ यात्रा कर रहे एक अधेड़ उम्र के आदमी से यह निवेदन किया कि वह उपर कि उनकी सीट में चले जाएं और उन्हें नीचे की अपनी सीट दे दें। इस प्रस्ताव को उस व्यक्ति ने सिरे से नकार दिया।
निराश होकर और थोड़ा चिढ़ कर,कोई और चारा ना देख, महिला यात्री को आखिरकार अपनी निर्धारित बर्थ पर ही जाना पड़ा।
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आपको, ये वाक्या बड़ा ही मालूम सा लगा होगा,है ना?
क्या कहना चाहती हूँ मैं, यही सोच रहे हैं ना आप सब?
दोस्तों, मेरा उद्देश्य यहाँ लैंगिक समानता की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना है।
हम सभी लैंगिक समानता की परिभाषा, उसके अंतर्गत आने वाले अधिकारों से भली भांति अवगत हैं।
पर क्या, आपको नहीं लगता कि कहीं न कहीं हम इसे अपनी जरूरत या सहूलियत के आधार पर इस्तेमाल करते हैं और इस तरह से हम इस संदर्भ में लोगों मे जागरूकता कम और भ्रम ज्यादा उत्पन्न कर रहे हैं।
अगर हम बड़ी बड़ी बातों को छोड़ दें, और अपना ध्यान रोजमर्रा की चीज़ों की ओर केंद्रित करें तो पाएँगे की कैसे इस विषय का असर मानव जाति पर पड़ता है।
जैसे कि- महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग अलग लाइन। फिर चाहे वो टिकट काउंटर हो, पूछताछ की लाइन हो, बिलिंग की लाइन हो इत्यादि। विषम परिस्थितियों के अलावा, अगर बाकी सब समय हर वर्ग के मनुष्य को ,एक ही कतार में खड़े होकर, समान रूप से ही अपनी बारी का इंतजार करना पड़े, तो क्या ये गलत होगा?
महिलाओं के लिए बसों में रिजर्व्ड सीट। इसमें कोई गलत बात नहीं है पर अगर सब कुछ बराबरी का है तो क्या पुरुषों के लिए भी रिजर्व्ड सीट नहीं होना चाहिए?
अगर गलती से कभी महिलाओं के सीट पर कोई परुष बैठ गया या फिर जैसे कि यहाँ ट्रेन की सीट का जिक्र हुआ, ऐसी परिस्थितियों में इनकार करने के कारण, पुरूषों को तरह तरह की बातें सुनने को मिलती हैं। पर क्या उसकी व्यथा के बारे में कभी किसी ने सोचा? क्यों हम इसे किसी और तरीके से नहीं सोच पाते?
क्या लैंगिक समानता सिर्फ कुछ बड़े मुद्दों पर ही लागू होती है? क्या इसका हमारे दिनचर्या से कोई लेना देना नहीं है?
हम सबने अक्सर महिलाओं को इस पर अपनी बात रखते सुना है पर क्या आपने कभी एक पुरूष को बेबाक होकर अपना नजरिया बताते सुना है? यहाँ तक की "गूगल" पर भी अधिकांश रूप से आपको सिर्फ एक पक्ष की ही कहानी पढने को मिलेगी।
क्यों उन पुरुषों को असंवेदनशील कहा जाता है,जो यह मानते हैं कि, इसमें कुछ गलत नहीं अगर एक महिला शारीरिक और मानसिक रूप से उतनी ही मेहनत करती है जितना कि वे?
क्यों उन महिलाओं को अलग मनोदृस्टि वाली कहा जाता है, जो कि किसी भी प्रकार की सहायता को ठुकरा कर अपने दम पर ही आगे बढ़न चाहती हैं? फिर चाहे वो गलतियाँ कर कर के ही सीखें।
यह बहुत ही अच्छी बात है कि लैंगिक भेदभाव को मिटाने में, औरतों को समान अधिकार दिलाने में, "जेंडर इक्वलिटी" का बहुत बड़ा योगदान है। पर अब भी ऐसे कई बिंदु हैं जिनपर अपनी सोच को बदलना जरूरी है।
हर किसी के दृष्टिकोण को जब एहमियत मिलेगी, तभी पूर्ण रूप से हम समान होंगे ( वैसे देखा जाय तो शारिरिक रुप से हम हमेशा एक दूसरे से भिन्न ही रहेंगे और इसे मानने में कोई गलत बात नहीं है)।
कानून बनाकर हमें यह तो समझा दिया जाता है कि यह हमारा अधिकार है पर अधिकतर उसे पूर्ण रूप से अमल करने वाले गिनती के ही होते हैं। और उस गिनती में क्या हम शामिल हैं? यह सवाल हमें अपने आप से करना होगा।
किसी एक की करनी पूरे कुटुंब को दोषी करार नहीं दे सकती। होते हैं कई लोग जो अपने लिंग को शासन करने का हतियार मानते हैं तो कुछ लोग उसी को अपनी ढाल बनाते हैं।
लैंगिक समानता को पूर्णतः समझ कर निष्पक्षता से जब हम अपनाएंगे, तभी सही मायनों में पीढ़ी दर पीढ़ी इसके असर से बरसों की जमी मानसिकताओं की धूल को हटा पाएंगे।
धन्यवाद
सुषमा
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