मेरी पहली रोचक अविस्मरणीय यात्रा (राजस्थान)

मैं दिल्ली की रहने वाली हूं और मेरे सभी रिश्तेदार भी दिल्ली में ही रहते हैं। तो कभी ट्रेन में सफर करने का अवसर ही ना मिला। जब मैं टीचर ट्रेनिंग कर रही थी तो हमारे इंस्टिट्यूट की तरफ से 1998 में पहली बार मुझे रेल यात्रा का अवसर मिला। D,. I. E. T की ओर से हमें राजस्थान की शैक्षणिक यात्रा पर ले जाना तय हुआ। घर से परमिशन मिलने पर मैं इतनी खुश हुई कि बता नहीं सकती।
25 सितंबर 1998 का दिन मैं कभी नहीं भूल सकती। उस दिन सुबह से ही मैं शाम का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। अपने भाई के साथ 6:00 बजे मैं पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन समय से पहले पहुंच गई। 7:00 बजे तक लगभग हमारे सभी साथी आ चुके थे। हमारे टीचर ने सबकी उपस्थिति दर्ज की और रात 9:00 बजे हमारी ट्रेन मंडोर एक्सप्रेस ने स्टेशन छोड़ने की सीटी बजा दी। इसी के साथ हुआ अंताक्षरी व गाने का सिलसिला शुरू।
26 सितंबर को सुबह 8:00 बजे हम सूर्य नगरी जोधपुर पहुंच गए। वहां प्लेटफार्म पर जोधपुर डाइट के स्टूडेंट्स हाथ में फूल व बैनर लिए हमारे स्वागत के लिए खड़े थे। उन्होंने तिलक लगा और फूलों से हमारा स्वागत किया। उनके इस प्रेम को देख हम सभी बहुत भावुक हो गए थे। हमारे लिए बस पहले से ही तैयार थी ।उसमें बैठ हम जोधपुर डाइट के छात्रावास पहुंचे। वही हम सबकी रहने की व्यवस्था की गई थी। नाश्ते में हमें पोहा, कचोरी व चाय मिली।
उसके बाद तैयार हो हम मेहरानगढ़ का किला देखने पहुंचे। इस किले की भव्यता देखते ही बनती थी। इसका शीशमहल बहुत ही सुंदर है। जिसमें रंग-बिरंगे शीशे लगे हुए हैं। सैकड़ों वर्षों बाद भी अनेक वस्तुएं वैसी की वैसी थी। इसके संग्रहालय में अनेक पाल- किया, भाले, बंदूक ,तोपे वस्त्र ,डोलिया अपने वैभव से परिपूर्ण थी। इसी किले में एक मंदिर भी है। जिसकी बहुत मान्यता है और इसके दर्शनों के लिए आमजन भी आते हैं। यह किला काफी विशाल क्षेत्र में फैला है।
लंच के बाद हम उम्मेद पैलेस पहुंचे। इसे जोधपुर का ताजमहल भी कहते हैं । 1983 में इसकी स्वर्ण जयंती मनाई गई। यह महल अब होटल में बदल दिया गया है। इसे बनाने में 13 वर्ष व 3000 मजदूरों ने काम किया।
शाम को हम मंडोर उद्यान पहुंचे। इसे रावण की ससुराल के नाम से भी जाना जाता है। उद्यान के बीच बीच में राजाओं की छतरियां बनी हुई है। बाग के बीच मे एक झील भी है। इस उद्यान में कई हजार देवी देवताओं की मूर्तियां भी है।
शाम 7:00 बजे हम कलायन झील पहुंचे उ।समय चारों ओर अंधेरा फैल गया था। यहां अंग्रेजों के समय जेल थी। जिसमें अनेक देशभक्तों को कैद किया गया था। शाम 8:00 बजे हम वापस छात्रावास पहुंच गए । वहां हमने गट्टे की सब्जी, चावल रोटी खाई।
27 सितंबर 1998 को हम रणकपुर जैन मंदिर देखने पहुंचे। जैन मंदिर काफी भव्य था। उसकी नकाशी देखते ही बनती थी। 64 वर्ष इसे बनाने में लगे तथा 42 सौ से अधिक मजदूरों ने काम किया। यह मंदिर लगभग 600 वर्ष पुराना है। इस मंदिर में स्वामी महावीर की मूर्ति भी हैं। जिसे सच्चे मोतियों को पीसकर उसकी पॉलिश की गई है। इसमें 183 प्रतिमाएं हैं। इसे सूर्य मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर में 2 घंटे हैं। एक से नर व दूसरे से मादा ओम की आवाज आती है।
3:30 बजे हम चामुंडा मंदिर पहुंचे हैं। इस मंदिर में दोपहर को आरती होती है। अगले दिन हमें जैसलमेर जाना था इसलिए खाना खाने के बाद हमने सामान की पैकिंग की और रात 12:30 बजे हम रवाना हो गए। नींद तो बहुत आ रही थी लेकिन सोए कैसे टांगे अकड़ रही थी। इसलिए पूरा सफर हमने बातें करते हुए बिता दिया।
सुबह 6:30 बजे हम जैसलमेर के मूमल होटल पहुंचे। होटल देखकर हम खुशी से उछल पड़े। लेकिन थोड़ी ही देर बाद हमें होटल के कमरों की जगह दो अलग-अलग हॉल में ठहराया गया । जहां पंखे भी रो-रो कर चल रहे थे। जिसे देख सब का उत्साह ठंडा हो गया।
नाश्ता करने के बाद हम 11:45 बजे फॉसिल पार्क पहुंची जा इंधन पेड़ पौधों के कई अवशेष रखी थी। गर्मी बहुत अधिक थी। इसलिए हम वहां से जल्दी ही निकल गए और बीकानेर रेस्टोरेंट पहुंचे जिसका खाना बहुत ही बढ़िया था राजस्थानी खाने की विशेषता थी मीठा रायता ,गट्टे की सब्जी, चूरमा और पापड़। खाना खा सभी बहुत खुश थे।
उसके बाद हम गडसीसर लेक पहुंचे। बहुत ही सुंदर झील थी वह ।जहां बीच-बीच में छोटे-छोटे महल बने थे। वहां हमने कई फोटो खींचे। उसके बाद हम sun set point देखने गए। यह ऐक रेगिस्तानी इलाका था। दूर-दूर तक रेत ही रेत थी। उस पर हमने बहुत ही मस्ती की। बहुत सारे फोटो लिए। ऊंट की सवारी भी की ।ऊंचे नीचे टीले, ऊंटों की कतारें और धीरे-धीरे अस्त होता सूर्य ब,ही मनोहारी दृश्य था।।
अगले दिन हम सोनार किला देखने पहुंचे। उससे पहले हमने बीकानेर रेस्टोरेंट में दही परांठे का नाश्ता किया। यह किला भी काफी विशाल था। आश्चर्य की बात यह थी कि इसमें बहुत से परिवार भी रहते थे । किले के अंदर झील एक जैन मंदिर भी था और एक बाजार भी।
अगले दिन हम जोधपुर वापस आ गए । उस दिन मैडम हमें शॉपिंग के लिए नेशनल हैंडलूम लें गई। वहां से सब ने राजस्थानी जूतियां, लहरिया साड़ी ज्वे,बहुत कुछ खरीदा। उस दिन दशहरा भी था । रात को लड़कों ने खुद एक छोटा सा रावण बनाया और सर मैं उसका दहन किया उसके बाद खूब मस्ती गाने हुए। बहुत ही मजा आया
दो अक्टूबर 98 को हमारा वापसी का दिन था। अपनी आंखों वर दिल में राजस्थान के इस सुनहरे सफर की यादें बसा, हमने घर वापसी के लिए रेलवे स्टेशन की ओर रूख किया।
आज इस सफर को किए हैं 22 वर्ष हो गए लेकिन लगता है कल की ही बात है। वह 7 दिनों का रोचक सफर आज भी मेरी यादों में बसा है। वैसे भी दोस्तों के साथ सफर करने अपने आप में एक अनूठा अनुभव था।
सरोज ✍️
#मेरी पहली रोचक यात्रा
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