ऐ नारी तू कितने किरदार निभाती

निज स्व को भूल ऐ नारी
तू कितने किरदार निभाती।
है नारी तू एक ही
ना जाने कितने रुप में ढल जाती।
तू सृष्टि रचयिता की अदभुत कृति,
तुझमें समाहित है सारी विभूति।
बन कर अपने हृदयेश्वर की परिणीता
पग - पग साथ निभाती,
कभी पथ प्रदर्शक तो
कभी अनुगामी बन जाती।
है नारी तू एक ही
ना जाने कितने रुप में ढल जाती।
सृष्टि - चक्र में देकर अपनी सहभागिता
नव अंकुर से अपनी कोख सजाती।
ऐ नारी तू जननी बन
तू सृष्टि कर्ता के समकक्ष हो जाती।
होकर भी तू नारी
पर ब्राह्मी बन जाती।
है नारी तू एक ही
ना जाने कितने रूप में ढल जाती।
अपने संतानों के पालन
और रक्षण हेतु ,
ऐ नारी तू कभी जगदंबा तो
कभी काली बन जाती।
ऐ नारी तू एक ही
ना जाने कितने रुप में ढल जाती।
ऐ नारी ढलती रहना तुम
जीवन के जीवंत रूपों में
है मेरी करबद्ध याचना तुमसे
निज स्व को भी संग- संग स्मरण करना।
इन दुर्भिक्षो और आततायी के संसार में
ऐ नारी अपने प्रतिबिंब की रक्षक बन जाना
अब तू काल भैरव की
कालरात्रि बन जाना
ऐ नारी तू अब
एक और नवीन रुप में ढल जाना।
जयश्री शर्मा
#उत्सव के रंग
#स्त्री तेरे रूप अनेक
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