हरेला- उत्तराखंड का पर्व

प्रकृति की गोद में बसे उत्तराखंड की हर एक विषय वस्तु प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति द्वारा संचालित होती है और उत्तराखंड निवासी प्रकृति को देव रूप में देखते हैं, यहां बनाए जाने वाले त्यौहार प्रकृति से प्रेरित होते हैं।
उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण त्यौहार " हरेला" जो बहुत धूमधाम से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में मूल रूप से मनाया जाता है। जिसके माध्यम से उत्तराखंड निवासी प्रकृति का धन्यवाद करते हैं।
हरेला जिसका शाब्दिक अर्थ *हरियाली का दिन* होता है, यह पर्व मुख्यता हरियाली यानी खेती से संबंधित है ।उत्तराखंड का मुख्य व्यवसाय कृषि है, कृषि प्रधान उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में इस पर्व की अधिक महत्वता कई वर्षों से रही है। इस पर्व को बरसात के मौसम में उगाई जाने वाली पहली फसल का प्रतीक माना जाता है तथा किसान भगवान से अच्छी फसल की प्रार्थना करते हैं।
वैसे तो हरेला पर्व वर्ष में तीन बार आता है लेकिन श्रवण मास में बनाए जाने वाले हरेला पर्व का अपना अधिक महत्व है, देवभूमि होने के कारण शिव जी का निवास स्थान उत्तराखंड को माना गया है, श्रावण मास भगवान शिव का विशेष प्रिय समय माना जाता है इस समय पड़ने वाले हरेला पर्व का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।
घर की महिलाएं व बुजुर्ग सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ मास में हरेला बोने के लिए जाली नुमा पात्र या गहरे बर्तन में उपजाऊ मिट्टी डालकर उसमें पांच से सात प्रकार के अनाज जैसे - गेहूं, जौं, धान,गहत,भट्ट, उड़द, सरसों के बीज को बोते हैं। घर के सभी सदस्य नौ दिन तक इस पात्र का विशेष ध्यान रखते हैं तथा सुबह -शाम इसमें पानी का छिड़काव करते रहते हैं ताकि हरेला अच्छी तरह से उग पाएं, इन बीजों से उगे चार से छः इंच के पौधों को 'हरेला' कहा जाता है।
हरेला वाले दिन घर के सदस्य नहा- धोकर पौधे को काट कर सबसे पहले अपने इष्ट भगवान
के चरणों पर अर्पण कर पूजा की जाती है। इस हरेली के पौधे को सांकेतिक फसल का प्रतीक माना जाता है और ऐसी मान्यता है की पौधा जितना लंबा होगा फसल उतनी अच्छी व घर में समृद्धि आएगी। पूजा- अर्चना कर, ईश्वर का आशीर्वाद मानकर इस को सिर व कान के पीछे रखा जाता है।
घर की बड़ी -बूढ़ी महिलाएं घर के हर सदस्य को तिलक करते हुए आशीर्वाद स्वरुप हरेले को सिर व कान के पीछे रखते हुए कुमाऊनी भाषा में गीत गाते हुए परिवार की समृद्धि की कामना ईश्वर से करती हैं जो इस प्रकार से है-
"जी रहे,जागि रये,तिब्तिये पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो,ब्यर जस फइये,
हिमालय में ह्यू छन तक, गंगा ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनै रये,
अगासाक चार उकाव,धरती चार चकाव दैजये
स्याव कस बुद्धि हो ,स्यू जस पराण हो"
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इसका अर्थ है तुम जीवन पथ पर विजय बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदैव हरी रहे। बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा परिवार फले-फूले, तुम्हारी जीवन में यह शुभ दिन व मास तब तक आता रहे जब तक हिमालय में बर्फ, गंगा में पानी रहे, आकाश की तरह ऊंचे हो, धरती की तरह चौड़े हो, सियार की तरह तुम्हारी बुद्धि हो तथा शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो। इस तरह की कामना के साथ-साथ कई तरह के पकवान व मिठाईयां बनाकर रिश्तेदार व आस पड़ोस में बांटकर यह त्यौहार धूमधाम से बनाया जाता है।
हरेला का यह त्यौहार हमें प्रकृति के और पास ले आता है।।
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