आशा दीप जलाए रखना

माना, अभी है रात अंधेरी, तिमिर घनेरा छाया है,
जित देखूं, उत मायूसी है, भय-शंका का साया है।
जहरीली अब हवा हुई है, सांसो से महंगी दवा हुई है।
शहर सूना, वीरान हुआ है, इक डर, दिल का मेहमान हुआ है।
जो हैं साथ, जाने कब बिछड़ जाएं, फूल गुलशन के, कब बिखर जाएं।
पर रात अंधेरी हो कितनी भी, जुगनू कहां चमकना छोड़ते हैं।
तारों को तो छिपना ही होता है, दिन कब निकलना छोड़ते हैं।
फिर रात की कालिमा पर, सूर्य की लालिमा जीतेगी...
तुम मन में आशा-दीप जलाए रखना, यह रात अंधेरी बीतेगी।
मुस्काएंगे लब फिर से, पंछी फिर से गाएंगे...
आज दूर हैं बेशक उनसे, कल अपनों से मिल पाएंगे।
नीले अंबर की छांव तले,उसी खामोश समंदर किनारे,
फिर पहर शाम के साथ बिताएंगे।
हाथों को डाले हाथों में, हम घंटों तक बतियाएंगे।
यह दौर अकेलेपन का, अब और नहीं सताएगा,
वह प्रेम प्यार का नया सवेरा, फिर से आएगा।
फिर से बिखेरेगा सूरज, वही रक्तिम सी लालिमा,
फिर से होगी वही सहर, जो हर लेगी तिमिर कालिमा।
वो मौन हो चुके संवाद फिर से बोलेंगे,
ह्रदय पट प्रिय जनों के समक्ष...फिर से खोलेंगे।
#थर्सडे पोएट्री चैलेंज
स्वरचित- रुचिका राणा
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