बहु हूँ बेटी ना बन पाई

छोड़कर बाबुल का घर - अंगना
पहुंची ससुराल की देहरी के लिए
आंखों में भरे थे सपने हजार
दिल में ढेर सारी प्रीत लिए
भूल कर अपना बचपन
सजाए मैंने ख्वाब नये
अपनाया दिल से सबको मैंने
मुझे ही वो पराया कर गये
देते संस्कारों की दुहाई
जिम्मेदारियों के फर्ज बताए
मां के दिए संस्कारों को
उन्होंने व्यर्थ कह ठुकराए
व्यवहार का गुण बताने वाले
खुद अपना व्यवहार भूल गए
सीख अपनेपन की देने वाले
खुद अपनापन वो भूल गए
व्यवहार की कसौटी पर
मुझको वो रोज ही तौलते गए
मौन रहकर सहती रही मैं
वो मख़ौल मेरा बनाते गए
निभाये फर्ज मैंने सभी
मौन रहकर सहते सहते
पसीज न दिल कभी तुम्हारा
दुख देकर तुम हंसते रहते
कहते थे मैं बेटी जैसी हूँ
कभी बेटी ना तुमने समझा
पराए घर का समझ कर
मुझे सदा पराया ही समझा
बहू हूँ, बहू ही रहने दो मुझे
द्वारे पर मैं बहू बनकर ही आई
बस दुख रहेगा ताउम्र यही कि
कभी तुम्हारी बेटी ना बन पाई।
- पुष्पा श्रीवास्तव
स्वचित व मौलीक
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