बहु में छिप गई बेटी

जन्म हुआ, आँगन में खिली,
पंख फैलाया ,उड़ान भरने को तैयार हुई,
चाहा था आसमां को छू लूँगी,
पलकों को फैला खुद का वजूद बनाऊँगी ,
एक अजनबी ने आकर हाथ थामा ,
अपने घर ले गया मुझे ,
पर मैं तो उड़ान भर भी न पाई थी,
मुझे सोने के पिंजरे में कैद कर दिया गया,
माँ!तुम्हारे लिए कुछ कर ना पाई ,
अब तो पराई हो गई ,
बंदिशे होगी, मनाही होगी ,
मेरी न सुनी जाएगी ,
बहुत कुछ करना चाहा ,
पर मैं बेटी ना बन पाई।
अब तो मैं मेहमान हूँ,
आऊँगी पर हालचाल ले कर चली जाऊँगी,
चाह कर भी कुछ ना कर पाऊँगी,
पास होकर भी दूर ही कहलाऊँगी ,
घर का कोना-कोना महकाना चाहती थी,
सबों के लिए सपनों को संजोना था,
पर कुछ कमी रह गई ,
मैं बेटी ना बन पाई,
बेटी थी तो समझ ना थी,
सब कुछ आप से लिया,
कुछ करने की उम्र आई,
तो बेटी से बहु कहलाई,
अब कैसे कर्ज उतारूँ,
अपना प्यार कहाँ दिखाऊँ?
कुछ सपने थे मेरे,
बेटी बनकर निभाना चाहा था,
पर बहु का आवरण ओढ़ लिया मैंने,
बेटी कहीं छिप सी गई ,
कहाँ खोजूँ, कैसे उसे यकीन दिलाऊँ,
कि तू बेटी है ,बेटी रहेगी,
कभी न रिश्ता टूटेगा तेरा,
बचपन से पराया जता जता कर,
पराया कर ही दिया,
सब कुछ दिया आपने,
बस एक बात रह गई,
जब बेटी बनने का मौका मिला,
तो बेटी ना बन पाई मैं ।
मेरी कविता कैसी लगी?जरूर बताएँ।पसंद आए तो लाइक और मुझे फालो करें ।
डाॅ मधु कश्यप
#poetryweek
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