बचपन के यादों की पुरवाई

मुझे बड़ा मज़ा आता था।
पर ख़ुद न चला पाने पर, बड़ा गुस्सा आता था।
"मुझे भी बस ऐसा ही एक साइकिल चाहिए ", एक दिन पिताजी से मैंने भी फरमाईश कर डाली।
पिताजी ने भी मौके का फ़ायदा उठा, पढ़ाई में दिल लगाने की बात मुझसे मनवा डाली।
मैं बेचारी क्या करती?
पिताजी की शर्त पूरा करने में लग गई, क्यूंकि समय की यही दरकार थी,
ख़ूब पढ़ाई की और कक्षा में अव्वल आई पर साइकिल चलाने की धुन अबतक मुझपर सवार थी।
पिताजी ने भी वादा अपना निभाया और अंततः वो दिन आया,
जब नई चमचमाती पीली साइकिल पर मैं सवार थी।
कभी गिरती, कभी संभलती,
पर सच पूछो तो खुश उस वक़्त मैं बेहिसाब थी।
आज भी जब किसी साइकिल की घंटी कानों में मेरे पड़ती है,
एकाएक से वो पीली साइकिल याद आ जाती है मुझे, और संग उसके बचपन के यादों की पुरवाई चलती है।
#World Bicycle Day
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