चिनार के दरख़्त

चिनार के दरख़्त

फ़रवरी की गुनगुनी सी सर्दियाँ चैताली को बहुत पसंद थीं । शाम का धुँधलका छाने लगा था और हल्की सी सिहरन महसूस होते ही उसने शॉल लपेट ली । हाथों में कॉफ़ी का मग लिये चैताली, अतीत की गलियों में विचरण करने लगी । सामने मेज़ पर पड़ी निखिल के पत्र ने यादों की सारी परतें उधेड़ दी थीं । सरसराती हवा से उड़ते पत्र के पन्नों को चैताली ने पेपरवेट से दबा दिया और एकबार फिर उसकी नज़रें निखिल की सुन्दर लिखावट पर ठहर गईं ।निखिल ने लिखा था

“मेरी चेतू,

वैसे तो मैं तुम्हें अपना कहने का हक़ उसी दिन खो चुका था, जिस दिन तुम मेरी ज़िन्दगी से हमेशा हमेशा के लिये रूठ कर चली गईं थीं ।तुम मुझे कविता के साथ देखकर इस क़दर आगबबूला हो गईं कि तुमने मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ कहने का मौक़ा तक नहीं दिया ।

वैसे भी, यदि मैं सफ़ाई देता, तब भी तुम मेरा विश्वास नहीं करतीं क्योंकि आँखों देखी को कोई झुठला सका है भला ? कविता से तुम मिली तो हो, वह कैसी पागल सी लड़की थी ।तुम्हारे मायके जाने के बाद मैं क़तई यह नहीं चाहता था कि कविता तुम्हारी अनुपस्थिति में हमारे घर आए ।

उस दिन मैं ऑफ़िस से जल्दी घर इसलिये आया था कि तुम्हारा मनपसंद बनाना चॉकलेट बना सकूँ और तुम्हें सरप्राइज़ दे सकूँ क्योंकि अगले दिन तुम वापस आने वालीं थीं । अचानक ही दरवाज़े पीटने की आवाज़ पर जब मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने कविता को नशे में धुत्त देखकर भौचक्का रह गया था ।

वह नशे में अनाप शनाप और बहकी बहकी बातें कर रही थी । मैंने उसे किसी तरह शांत कर बिस्तर पर सोने के लिये भेजा और केक बनाने में व्यस्त हो गया था । तभी तुम आ गईं थीं और कविता को हमारे बेडरूम में देख तुमने सोचा कि तुम्हारी अनुपस्थिति में हम दोनों….और बिना कुछ कहे ही उल्टे पाँव वापस चली गईं थीं कभी पीछे मुड़कर न देखने के लिये… उस दिन की घटना के बाद कविता ने आत्महत्या कर ली क्योंकि मेरा घर टूटने की ज़िम्मेदार वह स्वयं को मानने लगी थी ।

मैं जानता हूँ, मैंने तुम्हारे विश्वास को ठेस पहुँचाई है, परन्तु एक शाश्वत सत्य यह भी है कि मैं केवल तुमसे ही प्रेम करता हूँ । इतने सालों बाद मैं यह पत्र तुम्हें इसलिये लिख रहा हूँ कि मैं तुम्हें सिर्फ एक बार देखना चाहता हूँ । मैं कैंसर के आख़िरी पड़ाव पर हूँ और मृत्यु मुझे अपने आलिंगन में लेने के लिये लालायित है….क्या तुम मेरी आख़िरी इच्छा पूरी करोगी ?

केवल तुम्हारा निखिल

चैताली को याद आने लगा, वह और निखिल एक दूसरे के साथ कितने ख़ुश थे । कविता निखिल की बचपन की दोस्त थी और अक्सर ही उनके घर आया करती थी । कविता उन्मुक्त विचारों वाली लड़की थी जिसे विवाह एक बंधन से अधिक कुछ नहीं लगता था । वह हमेशा मौजमस्ती, क्लब, पार्टीज़ में व्यस्त रहती थी । चैताली को उसका खुला व्यवहार और निखिल के साथ घुलना मिलना तनिक भी नहीं भाता था ।

“खाने में क्या बनाऊँ बिटिया ?” लक्ष्मी अम्मा की आवाज़ सुन, चैताली की तन्द्रा टूटी । माँ पापा के इस दुनिया से जाने के बाद लक्ष्मी अम्मा ने ही बेटी की तरह उसका ध्यान रखा है । 

“भूख नहीं है अम्मा….तुम कुछ अपने लिये बना लो, और हाँ, मेरा सूटकेस लगा दो….कुछ समय के लिये मुझे मसूरी जाना है….इस बीच तुम भी अपने बेटे के पास रह आओ “

अगले दिन चैताली, मसूरी के अपने उसी बंगले के बाहर खड़ी थी जिसे उसने निखिल के साथ मिल कर सजाया था । बंगला तो अब खंडहर का रुप ले चुका था, परन्तु घर के सामने खड़े चिनार के दरख्त और उसका लगाया हुआ वोगेनवेलिया आज भी उसके स्वागत में मुस्कुरा रहे थे । पतझड़ के मौसम में सूखे पत्ते धरती पर बिछ चुके थे और नई हरी कोंपलें जन्म ले रहीं थीं, ठीक वैसे ही, जैसे चैताली के मन से दुख, संताप, नफ़रत, क्षोभ और पीड़ा की मिलीजुली भावनाएँ तिरोहित हो रही हों व प्रेम के नवांकुर घर बना रहे हों । 

अंशु श्री सक्सेना

मौलिक/स्वरचित

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