धर्म मां

सर्दी की धूप का आनंद लेने का मन किया सो बगीचे में चाय की चुस्की लेते हुए बैठ गई। मीठी मीठी धूप और खिले हुए सूरजमुखी के फ़ूल बगीचे को चार चांद लगा रहे थे। मैं इस दृश्य को निहार रही थी। तभी गेट पर एक छोटा सा बच्चा, शायद १२-१३ साल का होगा, एक बड़ा सा गट्ठर लेकर खड़ा था। बोला,” दीदी सूट लोगी?” उसके सवाल पे हंसी आ गई। सोचा खाली बैठी हूं थोड़ा टाइमपास हो जाएगा और नए कपड़े देखने को मिल जाएंगे। मैंने इशारे से उसे बुला लिया। उसके शरीर पर एक स्वेटर भी नहीं था। देखकर दिल उदास हो गया और उसके माता पिता पे गुस्सा आया। पर खुद को संयत करके उसे अपने सामने कुर्सी पर बैठने को कहा। पर वो घांस पर बैठ गया। मैंने पूछा,”बेटा नाम क्या हैं आपका?”
“रवि”,वो बोला।
“दीदी क्या दिखाऊं?, मेरे पास ढेर सारे रंग के सूट हैं। पर क्या मैं खुद की पसंद का सूट दिखाऊं?”वो कहता जा रहा था और अपना सामान को खोलने लगा। मैं उसकी मीठी बोली में खोने लगी। उसके सूट में दिलचस्पी नहीं थी लेकिन देखने लगी। सूट वाकई लाजवाब थे ।
” दीदी!, इस सूट पर मेंने खुद कढ़ाई की है”।
“बेहतरीन, ये तुमने बनाया है? मेंने पूछा
“हां दीदी अभी ६ महीने पहले सीखा है”।
मैंने दाम पूछा और वही सूट ले लिया। फिर चाय बिस्किट खाने को खिलाया। बहुत मासूम,प्यारा वह मेरे दिल में उतर गया। मैंने पूछा,”पढ़ते हो?”
“हां दीदी, मगर रात में, दिन में काम करने जाते है और रात को पढ़ते हैं।”
“तुम्हारे माता पिता तुमसे काम करवाते हैं, अभी तुम्हारी उम्र पढ़ने की है और तुम दर दर काम कर रहे हो,देखो तुम कितने कमजोर और दुबले पतले हो और तुमने स्वेटर भी नहीं पहना। मैं बोले जा रही थी तभी रवि बोला,”दीदी हम अनाथ है।” और मै चुप।
रवि ने मेरा हाथ पकड़ा और बोला,”हां दीदी मैं अनाथ हूं और मैं ही क्या इस संस्था में हम सब बच्चे अनाथ है जिन्हें रघु काका अपने घर ले आए और हमें आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहे हैं साथ ही हमारी पढ़ाई का भी ध्यान रखते हैं। रही स्वेटर की बात तो धूप में चलने से गर्मी लगती हैं इसलिए नहीं पहना।दीदी,काम करने से हम छोटे नहीं हो रहे सक्षम हो रहे हैं।”
हमारे शहर में कोई स्वयं सेवी है पता ना था।”मिलवयोगे अपने रघु काका से?”मैंने कहा। ” क्यूं नही, कल इसी समय आपको लेने आऊॅंगा।”रवि ने कहा।
दूसरे दिन मैं उसका बेसब्री से इंतजार कर रही थी तभी करीब ग्यारह बजे रवि आया और मैं उसके साथ चल दी। मैं जब वहां पहुंची तो पांव वहीं ठहर गए। करीब २०-२५ बच्चे खेल रहे थे। मैं हैरान थी और उत्सुकता वश में रवि कें पीछे चल दी।”” आएं मोहतरमा, मै ही हूं रघुवीर। बच्चे मुझे रघु काका कहते हैं। रवि ने बताया कि आप मिलना चाहती थी। कैसे सेवा कर सकता हूं?”
सवाल बहुत थे पर मैं निशब्द थी। अपनी मानवता की भावना छोटी लग रही थी।”आप इतने बच्चो का रख रखाव कैसे करते हैं?”मेंने पूछा।
“अरे! ये क्या कह रही हैं? ये बच्चे मेरा ध्यान रखते हैं। मैं रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर हूं। युद्ध में पैर जाने के बाद जिंदगी जीने के लिए ये बच्चे मेरा सहारा बने। मां कुछ साल पहले गुजर गई और शादी मैंने की नहीं।जो कमाया और पेंशन से गुजर हो रही है और मेरे जाने के बाद ये दुनिया में ठोकर ना खाएं इसलिए आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश चल रही है।”
मैं सालों से अपने बांझ होने पर ईश्वर को कोसती थी जिसके कारण मेरे पति ने मुझे तलाक़ दे दिया था। मैं स्कूल में अध्यापिका थीं तो समय कट रहा था।लेकिन रघुवीर जी के जीने के जज़्बात ने जिंदगी के मायने बदल दिए थे।अब तो मैं अक्सर वहां जाने लगी, बच्चों को पढ़ाना, उनके साथ खेलना , वक़्त अच्छा बीतने लगा।उस दिन मैं रघुवीर जी बोली,”क्या मैं आपकी साथी बन सकती हूं?”, वो घबरा गए। मैंने फिर कहा,”जी मेरा मतलब इस संस्था से में अपनी तनख्वाह लगा सकती हूं,इन बच्चों ने मुझे नया जीवन दिया है।”
रघुवीर जी की मुस्कुराहट में हां थी और अब मैं बांझ नहीं थी।मेरे पास ढेर सारे बच्चे थे और मैं उनकी धर्म मां।
रूचि ( tribute to all who works for society without show off and not for fame also )
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