एक माँ के जज़्बात बेटी के लिये

*बेटी*
तुम वह जिसने मुझे पहली बार
माँ की गरिमा का मान दिया
अपनी नन्ही उँगलियों से मेरी उँगली को कस कर थाम लिया
सर्दी की रातों में जब तुम मेरे पेट पे घंटो सोती थीं
मैं बिना कोई करवट बदले
बाँहों में सहेजे रहती थी
तेरा शिशु सुलभ वो भोलापन मुझको तो बहुत लुभाता था
तेरे मुख से निकलता जब भी माँ
अंतर हर्षित हो जाता था
वो बड़ी बड़ी काली आँखे
बिन बोले ही सब समझाती थीं
पूजाघर में भगवान कहाँ
इशारों में मुझको बताती थीं
फिर हाथ पकड़ चलना सीखा
तोतली सी बोली में गाती थीं
तेरी भोली अदाओं पर मैं सदा ही
वारी वारी जाती थी
अब बड़ी हो तुम और अपने
घर परिवार में कुछ हो ऐसे रमी
मैं तुम में देखती अपनी छवि
वो प्रेम डोर अब और घनी
छोटी प्यारी तेरी बिटिया
उसको मैं जब भी देखती हूँ
उसमें भी तुम ही दिखाई दो
तेरा बचपन फिर जी लेती हूँ
है आशीर्वाद सदा तुमको
अपने परिवार में खुश हो सदा
आशाएँ सभी परिपूर्ण होवें
ईश्वर की बरसे सदा किरपा
रहो रोग मुक्त तुम सदा स्वयं
परिवार पे भी हो प्रभु आशिष
दुनिया का हर सुख खींच सको
तेरे घर में सदा रहे इतनी कशिश।
अर्चना सक्सेना
( स्वरचित)
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