कुछ बोलिए न

तुम्हारी चुप्पी मेरी खुशियों की कातिल है, खुशहाल दांपत्य की नींव है गुफ़्तगु, कुछ बोलिए ना, मौन रिश्ते जल्दी रीस जाते है सेतु संवाद का जीवन पुल पर बाँधते रहिए।
मेरी आँखों की ज़ुबाँ हर पल तुमसे अठखेलियां करते कहती है कुछ, हाँ बहुत कुछ, झाँको कभी नैंनों की संदूक में अपने एहसासों को उन्मुक्त करते।
साँसों की सरगम से बजते है नग्में तुम्हारे प्रति मेरे मोह में हंसते, सर रखकर सुनों ना कभी मेरे सीने से उठते गर्म संवादों की लज़जत लेते।
मेरे मौन से भी इश्क की चिंगारियां उठती है जो चिल्ला-चिल्ला कर कहती है कितनी बरसूं अकेली, संग मेरे तुम भी भीग जाओ ना कभी कभी।
मेरी एकतरफ़ा बेतहाशा बरसती गुफ़्तगु की फ़रियाद को छूकर देखो गीले शिकवों में भी तुम्हारी बेरुखी से लिपटी मुस्कुरा रही है यूँहीं।
तुम्हारे मुँह से गिरते चंद शब्दों के मोतियों की प्यासी मेरी रूह को तबाह मत करो बोल दो न अपने एहसास को मुखर करते, मेरी कामना में रंग भरते तुम भी खिलखिलाओ ना कभी-कभी।
फ़िका है प्रीत का सागर बोल का हल्का तड़का लगाईये न...न कोई शिकायत नहीं ज़रा मौन को अपने आज़ाद कर दीजिए, जी उठेगा संसार हमारा जायके में हंसी का रस घोल दीजिए न।
भावना ठाकर \"भावु\" बेंगुलूरु
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