कोठे वाली के एहसास

"कहाँ उसकी कहानी आम लड़की सी सुहाती है, ज़िंदगी की ऊँगली उसी वक्त छूट जाती है, परछाई भी खुद की रूठ जाती है जब एक लड़की के देह को किसी कोठे की शान बना दी जाती है"
वेदना को छुपाने की कोशिश में कुछ ज़्यादा ही हंस देते है उस पगली के लब, तभी तो स्त्री तन के पिपासितों को बहुत भाता है बाज़र में खड़ी ललनाओं का रुप..
न शादी, न सिंदूर नांहि कोई रिश्ता दो निवाले की ख़ातिर नम आँखों से अनमने असंख्य लोगों से हर रात दैहिक रिश्ता निभाती है..
तभी तो,
वेश्याओं की वृत्तियां, क्रिया, एहसास और महसूस करने की शक्ति सब बर्बर होते अस्तित्व से गिर जाती होगी..
उसका ठंडा दिल और कठोर आत्मा कुछ भी पाने के लिए अधिर नहीं होती, क्यूँकि वह समझती है उसने जो खो दिया उसके सामने कायनात की कोई चीज़ किंमती नहीं होती..
चेहरा इतना गोरा होता है फिर भी पत्थर जैसा सख्त, भावहीन और निर्लेप होता है,
कितने कीड़े खेलकर निकल जाते है हर रोज़ उसके देह की परतों से खेलते,
असंख्य बदबूदार स्पर्श से पोते शरीर से नफ़रत होती है उसे,
अपने मूल को तलाशती कठोर हृदय से वह सच्चे प्यार का भी तिरस्कार करती है..
शारीरिक सुख की चरम उसे नहीं छूती,
परोस चुकी है वह सारे स्पंदन खरीदारों के आगे,
उब चुकी होती है उस क्रियाओं की आग से उसकी लौ अब नहीं जलती..
उसके लिए प्रेम या सेक्स मनभावन सुख देने वाले एहसास नहीं,
मांस के टुकड़े के साथ खेलते हुए जानवर जो मजे लेते है उसी खेल का एक हिस्सा है,
वो प्रवेश नहीं करने देती किसी प्रेमी की चाहत को अपने दिल की अंजुमन में उसके
बंदी दिल की चाबी बहुत पहले खो गई होती है कोठे के किसी कोने में...
वो बस इतना जानती है
उसका मांस लुभाता है सुवर समान मर्दों की वासना को और उसका शरीर एक जरूरत मात्र है,
उसकी आत्मा खराब हो गई है हर रोज़ एक ही गंध से गुजरते,
भौतिक सुखों की लालसा नहीं पालती पेट की आग से जूझते बिछ जाती है प्यासे तन के नीचे...
कोई आंतरिक आनंद उसे मदहोश नहीं करता, वह उतनी ही खुश होती है जितनी उसे आवश्यकता होती है,
भोगने वाले उसे भीतर से खाली कर देते है खुशियों का कोई मौसम उसके अनुराग से नहीं जुड़ा होता...
वह एक बीमारी बन गई है किसीकी इच्छापूर्ति की बीमारी, वो ज़िंदा नहीं होती उम्र काट रही होती है
क्यूँकि दुनिया सिर्फ़ उसके अनावरण शरीर को देखना चाहती है जो उसे बर्दाश्त नहीं...
कितना भी चाहे किसी शरीफ़ घर की शान कहलाने से रही, कोई पाक साफ़ दुपट्टा उसकी लकीर में जो नहीं।
भावना ठाकर \"भावु\" बेंगलूरु"कोठे वाली के एहसास"
"कहाँ उसकी कहानी आम लड़की सी सुहाती है, ज़िंदगी की ऊँगली उसी वक्त छूट जाती है, परछाई भी खुद की रूठ जाती है जब एक लड़की के देह को किसी कोठे की शान बना दी जाती है"
वेदना को छुपाने की कोशिश में कुछ ज़्यादा ही हंस देते है उस पगली के लब, तभी तो स्त्री तन के पिपासितों को बहुत भाता है बाज़र में खड़ी ललनाओं का रुप..
न शादी, न सिंदूर नांहि कोई रिश्ता दो निवाले की ख़ातिर नम आँखों से अनमने असंख्य लोगों से हर रात दैहिक रिश्ता निभाती है..
तभी तो,
वेश्याओं की वृत्तियां, क्रिया, एहसास और महसूस करने की शक्ति सब बर्बर होते अस्तित्व से गिर जाती होगी..
उसका ठंडा दिल और कठोर आत्मा कुछ भी पाने के लिए अधिर नहीं होती, क्यूँकि वह समझती है उसने जो खो दिया उसके सामने कायनात की कोई चीज़ किंमती नहीं होती..
चेहरा इतना गोरा होता है फिर भी पत्थर जैसा सख्त, भावहीन और निर्लेप होता है,
कितने कीड़े खेलकर निकल जाते है हर रोज़ उसके देह की परतों से खेलते,
असंख्य बदबूदार स्पर्श से पोते शरीर से नफ़रत होती है उसे,
अपने मूल को तलाशती कठोर हृदय से वह सच्चे प्यार का भी तिरस्कार करती है..
शारीरिक सुख की चरम उसे नहीं छूती,
परोस चुकी है वह सारे स्पंदन खरीदारों के आगे,
उब चुकी होती है उस क्रियाओं की आग से उसकी लौ अब नहीं जलती..
उसके लिए प्रेम या सेक्स मनभावन सुख देने वाले एहसास नहीं,
मांस के टुकड़े के साथ खेलते हुए जानवर जो मजे लेते है उसी खेल का एक हिस्सा है,
वो प्रवेश नहीं करने देती किसी प्रेमी की चाहत को अपने दिल की अंजुमन में उसके
बंदी दिल की चाबी बहुत पहले खो गई होती है कोठे के किसी कोने में...
वो बस इतना जानती है
उसका मांस लुभाता है सुवर समान मर्दों की वासना को और उसका शरीर एक जरूरत मात्र है,
उसकी आत्मा खराब हो गई है हर रोज़ एक ही गंध से गुजरते,
भौतिक सुखों की लालसा नहीं पालती पेट की आग से जूझते बिछ जाती है प्यासे तन के नीचे...
कोई आंतरिक आनंद उसे मदहोश नहीं करता, वह उतनी ही खुश होती है जितनी उसे आवश्यकता होती है,
भोगने वाले उसे भीतर से खाली कर देते है खुशियों का कोई मौसम उसके अनुराग से नहीं जुड़ा होता...
वह एक बीमारी बन गई है किसीकी इच्छापूर्ति की बीमारी, वो ज़िंदा नहीं होती उम्र काट रही होती है
क्यूँकि दुनिया सिर्फ़ उसके अनावरण शरीर को देखना चाहती है जो उसे बर्दाश्त नहीं...
कितना भी चाहे किसी शरीफ़ घर की शान कहलाने से रही, कोई पाक साफ़ दुपट्टा उसकी लकीर में जो नहीं।
भावना ठाकर \"भावु\" बेंगलूरु
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