माना विवाह एक संस्कार... लेकिन क्यूँ जरूरी कन्यादान ?

एक प्रश्न बेटी का अपने बाबुल से..माना विवाह एक संस्कार है..लेकिन क्यूँ जरूरी कन्यादान है?
पैदा होते ही दाई की आवाज़ आई,
लड़की आई है,नेग नहीं,बस ले आओ मिठाई।
घर पहुँची,किन्नरों की टोली है आई,
अरे लड़की जनी है,ज़्यादा नहीं चाहिए बधाई।
घर का गुज़ारा किसी तरह चल रहा था,
बाकी का एक तरफ, दहेज़ के लिए जुड़ रहा था।
माँ-बाप ने अपनी औकात से बढ़,विवाह में लगाया,
फिर भी खरी-खोटी सुन,अपना स्वाभिमान गवायाँ।
हुआ विवाह, गई ससुराल, दुल्हन बन,
जाते ही ताने मिले, मुँह दिखाई के संग।
बस इतना ही दिया,यह कैसा सामान लाई,
क्या इसलिए लडके को कराई,महंगी पढ़ाई।
सोचा,पति का प्यार मिलेगा,सह लूँगी ये सब,
उस नादान को क्या मालूम,पति का सच।
पहली बार जब हाथ उठाया, गिरी सपनों के शिखर से,
भीतर तक कुछ टूट गया था, उसके कोमल मन में।
बात-बात पर गाली-गलौच, वो सब सह लेती,
पर घरवालों को कोसते, तो भीतर तक रो देती।
लिखती पन्नों में दुखड़ा रो-रोकर कुछ यूँ,
इतना बोझ समझे था, बापू मुझको क्यूँ?
क्यूँ जरूरी था विवाह, क्यूँ पल्ला झाड़ लिया,
क्यूँ जिगर का टुकड़ा,भेड़ियों के सम्मुख डाल दिया?
हे विधाता! बेटियों की, ये कैसी किस्मत बनाई,
वे ही क्यूँ घर छोड़ जातीं, कर शादी और सगाई।
सबकी किस्मत में न होता,विवाह का सच्चा सुख,
कहने को जन्मों का बंधन,एक जन्म में ही इतना दुख।
विवाह एक संस्कार है भरोसे,प्यार व समर्पण का,
खरा उतरे जो,देना हाथ उसे ही बेटी का।
...रूचि मित्तल...
#अनकाहेभाव #अनछुएअहसास
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