अति का अंत

अति का अंत

“अरे ,सुनती हो भाग्यवान किसने बनाया है यह खाना लगता है मिर्च का पुरा डब्बा ही उडेल दिया है ।”

इतने मे कविताजी बोली “किसने क्या ,आपकी लाडली बहू ने लगता है माँ ने खाना बनाना भी नहीं सिखाया ,

वैसे तो समधनजी बडी तारीफें करती मेरी बेटी बहुत होशियार है पढाई से लेकर सिलाई बुनाई हर काम में अव्वल है।

दो साल हो गए शादी को लेकिन ढंग से खाना बनाना भी नहीं आता।लगता हैं सिर्फ किताबों का ही ज्ञान हैं ,बाकी सब काम मे तो जीरो है जीरो।लगता हैं मिर्च खिला खिलाकर हम सबको मार ही देगी ।

अरे ! बहू परिवार से अलग होना है तो साफ- साफ कह दो ना ये रोज- रोज के नाटक क्यों?” ।

सुमी चुपचाप खडी सुन रही थी ,उसकी आंखों से आँसू की अविरल धारा बह रही थी।

उसने कहा “लेकिन !मम्मीजी मैंने सब्जी चखी थी,” सुमी की बात को काटते हुए कविताजी ने कहा “तो क्या हम सब झूठ बोल रहे है।”

“नहीं मम्मीजी मेरा ये मतलब नहीं है” ।
“तो तुम्हारे कहने का यह मतलब है कि मैंने डाली है सब्जी मे मिर्च..” ये सब ड्रामा चल ही रहा था कि डोरबेल बजी। लगता हैं हरिश आ गया यह कहकर कविताजी ने सबको चुप रहने का ईशारा किया।
हरिश हाथ मुहँ धोकर जैसे ही खाना खाने बैठा ,माँ ने उसके लिए थाली परोसी सब्जी इतनी तीखी थी कि उसके गले से खाने का एक निवाल भी नहीं उतर रहा था ।उसने जैसे ही रसोई में खडी सुमी की तरफ देखा उसे सारी बात समझ आ गई वह चुपचाप भोजन कर उठ गया।
लेकिन कविता जी कहा चुप रहने वाली थी बिना कोई ड्रामा किये उनको तो खाना भी हज़म नही होता था।”क्या बात है बेटा! शादी के पहले तो सब्जी मे थोड़ा भी नमक ज्यादा होता तो भी सारा घर सिर पर उठा लेता।अब तो जोरु का गुलाम हो गया है बिना कुछ कहे इतनी तीखी सब्जी खा गया। ”
वह कुछ बोलता उसके पहले ही सुमी ने चुप रहने का ईशारा किया।लेकिन कविता जी कहाँँ चुप रहने वाली थी वह सुमी के बारे मे भला बुरा कहने लगी।
“माँ आपने ही तो मेरे लिए यह रिश्ता ढूँढा था, फिर अब क्या हो गया जो आप रोज” ।” हाँ बेटा हाँ मैंने ही ढूँँढा था यह रिश्ता पर तब मैं यह नहीं जानती थी कि इसका तो अपने चाचा के बेटे से ही अफेयर था।चरित्रहीन है यह तो…।”
अब सुमी के सब्र का बांध टूट गया वह हाथ जोडकर कहने लगी, “मांजी आप जो चाहे सजा दे पर भगवान के लिए ऐसा इल्जाम तो ना लगाए।”
“अच्छा तो तुम्हारे कहने का यह मतलब है कि मैं झूठ बोल रही हूँ तो चलो रखो माता रानी के सिर पर हाथ और साबित करो कि तुम पवित्र हो “।यह कहते हुए उसे घर के मंदिर में ले गई।
सुमी ने जैसे ही हाथ उठाया, हरीश ने उसका हाथ पकड़ लिया”बस सुमी बस !बहुत हो गया अब और नहीं ! मैंने तुम्हारे साथ सात फेरे लिये हैं और मुझे तुम पर पूरा भरोसा है, तुम्हें अपनी पवित्रता का सबूत देने की कोई जरुरत नहीं।मुझे माफ करना सुमी आज तक मैंने हर बार तुम्हारी गलती ना होने पर भी तुम्हें झुकाया और तुमने बिना कोई सवाल किए मेरी हर बात मानी लेकिन अति का अंत होना जरूरी है” ।
“माँ आज तो आपने सारी हदें पार कर दी ,आप अपने अहंकार मे इतनी अंधी हो गई हैं कि एक औरत होकर भी दूसरी औरत का दर्द नहीं समझ पाई हस बोलकर भाई से बात क्या कर ली सुमी ने आपने तो उस रिश्ते को ही बदल कर रख दिया ।
माँ आज तक परिवार में शांति बनी रहे इसलिए चुप रहा पर जिस घर मे मेरी पत्नी पर लांछन लगाया जाये वहा मुझे एक क्षण भी रुकना गंवारा नही,जाते -जाते एक बात जरूर कहना चाहूंगा आपने मेरे लिए सुमी जैसा जीवनसाथी चुना इसके लिए मैं आप का सदा आभारी रहूँँगा “।

“आज तक इस दुनिया में जब -जब औरत के चरित्र पर सवाल उठा है औरत को ही हमेशा अग्निपरीक्षा देनी पडी ।”
लेकिन अगर हर किसी को हरिश जैसा जीवनसाथी मिल जाए तो कभी किसी औरत के चरित्र पर ऊंगली नही उठेगी कभी किसी को फिर से अग्नि परीक्षा नही देनी पडेगी।

आपकी सखी
©️®️कंचन हितेश जैन

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