मैं तेरी उम्र हूँँ

द्वार पर दस्तक हुई धीरे हौले हौले
देखा मैंने इधर उधर कोई द्वारा खोले
सब अपने में मगन थे कुछ सुना ही नहीं
हार कर खुद उठी किसीसे कहा भी नहीं
झाँका जो झरोखे से, कोई थी बाहर खड़ी
वह मेरी तरह दिखती, मेरी ही छवि लगी
हैरान हुई मैं कुछ, ये किसका दिखा बिम्ब ?
क्या खुद खड़ी हूँ बाहर या मेरा प्रतिबिंब ?
ध्यान से जो देखा थोड़ी उम्र अधिक थी
बालों की श्वेत लटें चेहरे पे लटकती
जब उसने मुझे देखा वह मुझसे पूछती
कब से बाहर खड़ी कपाट क्यों न खोलती
हैरान इतनी क्यों तू मैं तेरी उम्र हूँ
तुझसे ये कहने आई बच्ची न रही तू
गम्भीरता की चादर अबतो तू ओढ़ ले
बच्चों सी चंचलता अरी अब तो छोड़ दे
जो मैंने कहा उससे अब सकते में थी वो
मेरे पास जो तुम आई तो आई भला क्यों?
ऐ उम्र तेरा स्वागत मैं करूँगी जरूर
तेरे बढ़ने से भी मुझको तो होगा री गुरूर
चंचलता छोड़नी पड़े ये कहाँ है लिखा?
शरारतें मैं छोड़ दूँ यह मुझको न सिखा
मायूसियों को मैं तो बड़े पीछे छोड़ आई
दूजे को भी हँसाती और खुद भी खिलखिलाई
मेरी वजह से मुख पर मुस्कान कोई लाए
मैं धन्य समझूँ खुद को जीवन सफल कहाए
उम्र तो केवल अंक यह बात बड़ी सच्ची
दिल में मेरे छुपी है अभी भी छोटी बच्ची।
अर्चना सक्सेना
(स्वरचित)
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