नारी स्वयं पर भारी

नारी स्वयं पर भारी

सुख सुविधाएं धन दौलत रिश्ते नाते सब पाती है
क्या बस यही पूर्ति औरत को संपूर्ण बनाती है
सरल कोमल मन का आंकलन होता तब तक बस सराहनीय
जब तक परिवार की सेवा सुश्रुषा रहती उसे प्रिय
ज्यूं ही सोचे अपने बारे में चौखट के बाहर चाहे झांकना
तब होता है सच से समाज के असल में औरत का सामना
सौम्यता और निश्छलता को उसकी ये समाज उद्दंडता और अभिमान बताता है
जब स्वयं की खोज में कदम उसका देहरी से बाहर आता है
असक्षमता को पुरुष की करती जो नज़रंदाज है
भरती जो उसकी रिक्तिका में सम्मान और आत्मविश्वास है
अपनों को छोड़कर परायों को अपना बनाने का करती जो भरसक प्रयास है
क्यूँ नहीं कराया जाता उसे उसकी विशेषता का एहसास है
क्यूँ कहा नहीं जाता कि वो खास है
समर्पण, स्नेह और उत्साह से भर देती जो हर व्यक्तित्व में रंग
पूजता जिस रूप को समाज मंदिरों में
करता जिसकी चर्चा सत्संग में
फिर क्यूँ कसा जाता उस पर व्यंग्य
कोई कहता पुरुषप्रधान समाज की मानसिक उपज इसे
लेकिन एक पुरुष भी किसी ना किसी स्त्री की परवरिश है
संस्कारों के नाम पर बंधनों में बेड़ियाँ पहनाती आ रही एक स्त्री दूसरी स्त्री को
यही नारी के पतन का कड़वा सच है। 

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