नयी सीख #पिंकदीपावली

नयी सीख #पिंकदीपावली

शर्मा आंटी हर साल दीपावली पर बड़े ज़ोर-शोर से सफाई करती और सफाई करने वाली मेहरी को अनेकों सामान बैग भरकर देती थी, वह बड़ा खुश होकर उनके घर से जाती थी, लेकिन अगले दिन जब काम करने आती तो उसका चेहरा उतरा हुआ होता था, तब मैं करीब दस बरस की थी, माँ से पूछती थी कि कल तो यह आंटी खुश थी और आज इतनी उदास क्यों है?


माँ कहती, बेटा अभी तुम नही समझोगी जब बड़ी हो जाओगी तब खुद ही समझ जाओगी, जाओ जाकर खेलो।

फिर माँ दीपावली पर एक छोटा सा पैकेट आंटी को देती तो मैं फिर पूछ बैठती कि माँ पड़ोस वाली आंटी तो मेहरी आंटी को इतना सब सामान देती हैं दीपावली पर और आप हो कि एक छोटा सा पैकेट थमा देती हो।

मम्मी तब भी चुप रही और कहा जाओ खेलो और इस तरह खेलते-खेलते कब बड़ी हो गई पता भी ना चला।

आज मैं विवाह के बाद अपनी मेहरी को भी वही छोटा पैकेट देती हूँ दीपावली पर और माँ की बात याद करकर मंद-मंद मुस्कुरा देती हूँ।

एक बार मेरी सहेली दीपावली पर मिलने मेरे घर पर आई हुई थी, संजोग से उसी के समक्ष मैंने मेहरी आंटी को पैकेट दिया। उनके जाने के बाद मेरी सहेली कहती कि तू तो बड़ी कंजूस है दीपावली के नाम पर बस मीठा पकड़ा दिया, मुझे देख मैंने चाय के कप-प्लेट, शोपीस, बर्तन और भी ना जाने क्या-क्या दिया है मिठाई के साथ।

मैंने कुछ देर उसकी बात सुनी बिना बीच में टोके फिर पूछा क्या तुमने जो सब सामान दिया वो नया था, और जो तुम शोपीस वगैरह की बात कर रही हो क्या उसके घर में इतनी जगह है कि वो उसे सजा पाएगी, उसके लिए क्या जरूरी है वो शोपीस या बच्चों को पेट भर भोजन मिलना और त्यौहार पर कुछ नये कपड़े जिससे वो भी अपनी दीपावली खुशी-खुशी मना पाएँ।

मेरी सहेली ने कहा इससे क्या फर्क पड़ता है सामान नया था या पुराना, सामान तो था।

मैंने उसे कोई सफाई नहीं दी।

दीपावली की छुट्टी उपरांत जब आंटी काम करने उसके यहाँ पर गयी तो उसने आंटी से खुद पूछा कि वो मेरे यहाँ क्यों काम करती हैं, मैंने तो उन्हे दीपावली जैसे त्यौहार पर भी कुछ नही दिया।

तब आंटी ने जो कहा उसे सुनकर मेरी आँखे कृतज्ञ भाव से गीली हो गई उनके प्रति। उन्होने कहा, "बेटा, मैं आपके यहाँ इसलिए काम नही करती कि एक-दूजे की बात घर-घर जाकर बताऊँ, पर आप पूछ रही हैं तो बताती हूँ, उस छोटे से पैकेट में मेरे लिए खजाना था, मेरी पोती के लिए नया फ्राक था, जिसे पहन वो इठला रही थी, मेरे और बहु के लिए नयी साड़ी थी और पूरा परिवार खुशी-खुशी दीपावली मना सके इसके लिए मिठाई के संग -संग पटाखे और पर्याप्त पैसे थे मन का खाना खरीदने और बनाने के लिए। 

मैं दबे पाँव ही उसके दरवाज़े से वापिस लौट आई और कसम खाई ऐसे लोगों को अपनी जिंदगी में शामिल ना करने की जो आपका होने का दिखावा करकर इधर-उधर आपकी बुराई करते घूमते हैं और दूसरों के भी कान भरते हैं। 

वह दीपावली मुझे अपने और पराए का भेद अच्छे से समझा गई, आमतौर पर हमारी धारणा होती है कि घर में काम करने वाली मेहरी हमारे घर की बात दूसरे घर में बताती है, पर सच हर बार यही हो जरूरी नही, स्वयं को उच्च समाज का बताने वाले लोग असल में कितनी छोटी सोच रखते हैं यह हम कभी नहीं जान सकते।

आपको मेरा यह संस्मरण कैसे लगा बताइएगा जरूर।

धन्यवाद। 

आपकी सखी,

शिल्पी गोयल (स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित)


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