पता नहीं उस ज़माने की औरतें कैसे सह लेती थी थोपी गई परंपराओं को।

पता नहीं उस ज़माने की औरतें कैसे सह लेती थी थोपी गई परंपराओं को।
माहवारी जो एक स्त्री को माँ बनने का सम्मान देती है स्त्री शरीर की उस क्रिया को आप अपवित्र कैसे मान सकते हो। मैंने अपनी माँ को देखा था उनकी माहवारी के दिनों में चार दिन अछूत की तरह बिताते हुए। मेरी दादी इन सारी चीज़ों को तोड़ मरोड़कर थोप दिया करती थी। कितना ढ़कोसला था, कहने भर को छूत-अछूत होता था उन दिनों में भी सारा काम मेरी माँ ही करती। बर्तन साफ़ करना और कपड़े धोना, फिर मेरे हाथों बर्तन और धुले हुए कपड़ों पर दादी पानी का छंटकाव करवा देती और बोलती लो पवित्र हो गए। पर खाने-पीने की चीज़ और अचार की बरनी मेरी माँ छू नहीं सकती, तो खाना अपवित्र हो जाता। माँ बैड पर नहीं सो सकती एक बांस की चटाई थी उस पर सोया करती थी, मेरा खून खौल उठता था। ये प्रथा और परंपरा मेरी समझ से बाहर थी।
ऐसे में मुझे जब पहली बार माहवारी आई तो माँ ने कहा चार दिन अब किसी चीज़ को छूना मत और ये ले चटाई इस पर सोना है। मेरे विद्रोही मन में खलबली मच गई मैंने माँ को साफ़ बोल दिया ये सब मुझसे नहीं होगा, मैं जैसे नोर्मल दिनों में रहती हूँ वैसे ही रहूँगी। उस पर दादी तुनक कर बोली, सदियों से हम ये सब निभाते आए है तू कौनसी नई परंपरा अपना रही है, घर को अपवित्र करना है क्या? मैंने कहा दादी ये जो माहवारी है वो ईश्वर की ओर से हम औरतों को मिला अनमोल उपहार है, कोई गुनाह नहीं जो चार दिन पड़ी रहूँ। और ऐसा करने से भाई और पापा भी जान जाएंगे की मेरे पिरीयड़्स चल रहे है, कितना ऑकवर्ड फिल करूँगी। और मैं सब जानती हूँ आप माँ को सारे नियम धरम कैसे मनवाती हो। पानी के छींटे मरवाकर माँ ने धोए हुए कपड़े और बर्तन आपकी नज़र में पवित्र हो जाते है, तो खाने पर भी पानी के छींटे मार दो माँ अचार खाना सब छू सकेगी। पर अब से हमारे घर में ये अधपके रीति रिवाज नहीं चलेंगे। न मैं चार दिन एक कोने में पड़ी रहूँगी न माँ फिर भी आपको सब जबरदस्ती ये सब करवाना है तो ठीक है अब से उन चार दिनों सारा काम आपको करना होगा, माँ बिलकुल आराम करेगी बोलिए मंज़ूर है तो पूरी तरह से प्रथा निभाई जाएगी।
दादी की सिट्टी पिट्टी गुल थी, बोली मुझे क्या जो मन में आए करो। घोर कलयुग है घोर कलयुग आधुनिकता के नाम पर घर को अपवित्र करो, मेरी तो बहुत गई थोड़ी रही भुगतोगे सब अपने पाप मुझे क्या।
जब अकड़ टूट जाती है तब इंसान शब्दों के सहारे जंग लड़ता है, दादी भी शब्दों के बाण चला लेती थी, पर मैं और माँ एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते थे। पर ईश्वर मेरे जैसी हिम्मत वान सबको बनाएं, उस दिन अगर मैं चुपचाप उस परंपरा का अनुकरण करती तो शायद आज मेरी बेटी और बहू भी उस खोखली परंपरा में पीस रही होती। पर उस दिन से हमारे घर से एक कुप्रथा ने विदाई ले ली जिसका श्रेय मेरे विद्रोही मानस को जाता है।
भावना ठाकर \"भावु\" (बेंगलोर, कर्नाटक)
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