पूत ही हमेशा कपूत नहीं होते

श्राद्ध पक्ष आरंभ हो चुका है। यह समय है हमारे पुर्वजों के प्रति प्रेम और सम्मान दर्ज करवाने का। लेकिन अक्सर देखा जाता है, इस समय सोशल मीडिया पर बड़े अजीब से मैसेज आने लगते है।
उदाहरण-
" जीते जी माता-पिता की सेवा नहीं की और अब यह ढ़ोंग... ।"
एक उदाहरण ही काफ़ी है समाज में फैली सोच का। लेकिन यह तो एक पक्षीय बात हुई। क्या कभी दूसरा पक्ष कोई देखता या सोचता है। हमारे समाज की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। वो यह कि बुजुर्गों को बेचारगी से देखा जाता हैं। जिन्हें पचास - साठ साल का अनुभव है। जिनका एक छत्र राज है अपने घर पर। जिनकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता वो बेचारे और लाचार कैसे हो सकते है?
हमारे समाज में बच्चों को वैसे भी कोई अलग व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार नहीं करता। फिर उनकी जिंदगी के हर महत्वपूर्ण फैसलों पर माता-पिता का एकाधिकार होता है। पढ़ाई से लेकर शादी तक हर महत्वपूर्ण पड़ाव में माता-पिता अपनी मर्जी थोपते है।
बच्चा भले ही 30-40 साल का प्रौढ़ हो गया है लेकिन यह चाहते है कि बेटा अब भी इनकी उंगली पकड़ कर ही आगे बढ़े। अपनी बुद्धि का इस्तेमाल न करें।
घर के बड़ो को मान देने का मतलब यही होता है कि बच्चे जो भी काम करे उन्हें बता कर करें। उनकी राय जानकर करें। और बच्चे ऐसा करते भी है। लेकिन एकमत न होने पर यही बड़े अपने ही बच्चे के मार्ग में रोड़े बनते है। घर में कलह और क्लेश का माहौल बनाते है। इनका अहम अपने ही बच्चों की जिदंगी को तहस - नहस करता है। लेकिन ये "बड़े" अपनी हरकतों से बाज नहीं आते।
शादी में भले ही लड़की, लड़के की पसंद की होती है लेकिन सिर्फ़ वहीं तक उसकी चल पाती है। उसके बाद तो कदम कदम पर दोनों की परीक्षा ही होती है। शादी होने से पहले ही संघर्ष शुरू हो जाता है। आजकल रिवाज बन गया है यह कहना हमारे कोई कमी नहीं आप जो दोगे अपनी बेटी को देगो। और दूसरी तरफ बेटे पर दबाव बनाया जाता है कि वह लड़की से कहे कि फलाना रिवाज तो जरूरी है। इतना तो देना ही होगा। उतना तो करना ही होगा। बिचारे लड़का-लड़की अपने भावी जीवन और भविष्य की योजनाओं से ईतर इन्हीं उलझनों में फंस के रह जाते हैं।
माता-पिता की कृपा से शादी हो भी जाती है लेकिन जिदंगी मुश्किलों से भर जाती है। अपने बेटे के हर बात में हस्तक्षेप करना इनका अधिकार बना ही रहता है । शादी होने के बाद लड़की से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने ससुराल को अपनापन दे। पूर्ण समर्पित रहे। सबकी सेवा करे। रिवाज, रस्म और रिश्तों को निभाने की हर जिम्मेदारी लड़की पर डाल दी जाती है। लेकिन यदि उनका बेटा अपने ससुराल में समर्पित रहे, समय पड़ने पर वहाँ खड़ा रहे तो इनको फूटी आँख नहीं सुहाता। उस पर दबाव बनाया जाता है। लड़के को समझ नहीं आता वह करे तो क्या करें।
जिस पत्नी के साथ सात फेरे लेते वक्त वचन दिलाया जाता है कि पति आजीवन पत्नी के मान - सम्मान और शील की रक्षा करेगा। इसी वचन की धज्जियाँ स्वयं लड़के के परिवार वाले हर अवसर पर उड़ाते है। बहुत से घरों में तो बहुओं को हर बात पर गाली दी जाती है, ताने दिये जाते है। और पति अपने माता-पिता के सामने मुँह नहीं खोल पाता। यह बड़े जो समझ और सूझबूझ में कहीं से बड़े नहीं है अपने ही बेटे की गृहस्थी में ज़हर घोलते है।
इनके बच्चे खुद बच्चों के पिता बन चुके होते है लेकिन यह इन्हें नाकारा और नालायक ही समझते है।" इसे क्या पता? इसे तो कोई ज्ञान ही नहीं।" इसका सीधा सा यही मतलब की आपने अपने बच्चे को कुछ सिखाया ही नहीं। तभी तो उसे कुछ ज्ञान नहीं। अपने ही मुँह से अपनी ही परवरिश पर प्रश्न चिह्न लगाते है।
माता - पिता अपने बच्चे को हमेशा आज्ञाकारी देखना चाहते है। वे चाहते है उनका बेटा हर पल उनका ध्यान रखें। एक खांसी या छींक भी आए तो सेवा में हाथ बांधे खड़ा रहे। लेकिन वहीं बेटा जब अपनी ही धर्म पत्नी की बीमारी में उसके लिए खड़ा रहे तो इनसे बर्दाश्त नहीं होता। क्यो भाई? पति है उसका! उसके प्रति कोई कर्तव्य नहीं बनता पति का? तो इतना क्यूँ चुभता है?
आजकल के आधुनिक समाज के बेटे जो अपनी दफ्तर में काम करने वाली महिलाओं की बेबाक भाषा और बिंदास अंदाज के कायल होते है, वहीं अपनी पत्नी का मुँह खोलना बर्दाश्त नहीं कर पाते। यहाँ तक की अपनी पत्नी को एक अदनी सी साड़ी भी दिलाएंगे तो कहेंगे मम्मी को मत बताना कि मैं लाया था यह साड़ी तुम्हारे लिये। क्योंकि ये "माँ के लाडले" अपनी माँ को खुश रखना चाहते है। जब बहू दबती है, तभी ऐसी माताएँ खुश रहती है। बेटे अगर तर्क कर भी लेते है तो माताएँ अपनी "राम कहानी" ले कर बैठ जाती है कि हमने यह सहा वो सहा लेकिन कभी मुँह नहीं खोला।
हम कैसे माने आप जो कह रही सही कह रही है या कहानियाँ बना रही है? हम तो मौजूद नहीं थे उस वक्त वहाँ?
एक औरत की जिदंगी में माँ बनना सबसे सुखद अनुभूति होती है। इस समय औरत को प्यार और परवाह की जरूरत होती है। लेकिन उसे मिलती है झिड़कियाँ। आराम तक नसीब नहीं होता। इस समय की कसर जिदंगी भर औरत की सेहत को भुगतनी पड़ती है। हर औरत यह बात बहुत अच्छे से जानती है। लेकिन इस समय ख्याल रखने की बजाय सास तो जैसे दानव ही बन जाती है। अरे तुम समय रहते बहू को इंसान नहीं समझोगे, जानवर से बदतर व्यवहार करोगे और बदले मे उससे पूर्ण समर्पित सेवा चाहोगे, कैसे संभव है?
आज किसी भी माँ को पूछ लीजिए उसके पास प्रसव अवस्था में हुए जुल्मों की फेहरिस्त सबसे लम्बी होगी।
अपने बेटे का तो मुँह बंद करवा दिया जाता है यह बोलकर कि" औरतों का मामला है तुझे क्या मतलब?" अरे मतलब कैसे नहीं? बच्चा तो तुम्हारे बेटे का ही है।।
औरत अपना घर बचाने की हर संभव कोशिश करती है। क्योंकि घर टूटता है तो सबसे ज्यादा उसे ही भुगतना होता है। लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं होता कि आत्मसम्मान को ताक पर रखा जाए। एक वक्त आने पर तो बेटा अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करता ही है।
हर तरह बर्दाश्त करने के बाद भी जब यह लोग घर तोड़ने और घर में क्लेश फैलाने से बाज नहीं आते तो वह अपना मुँह खोलता है। लेकिन कुछ उदाहरण छोड़ दें तो भी हमारे समाज में बुजुर्गों की स्थिति इतनी बुरी नहीं है जितनी दर्शायी जाती है। गालियाँ खाकर भी बहुएं सास-ससुर की सेवा करती है। आज समाज के अस्सी प्रतिशत घर सिर्फ़ इसलिये बचे हुए हैं क्योंकि ये "आजकल की बहुएँ" अपना मुँह बंद किये हुए है। अगर इन्होंने मुँह खोला तो न जो कितने घर टूटेंगे उनका क्या आंकड़ा होगा आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते।
हर सिक्के के दो पहलू है।जब पहला रख रहे हैं तो दूसरा भी रखने से गुरेज न करें। जब तोलने बैठे तो सभी को एक ही तराजू में तोलने का मादा रखिए। यह कलयुग है, नहीं यह घोर कलयुग हैं। इस समय में हमेशा पूत ही कपूत नहीं होता, माता भी कुमाता हो सकती है और पिता भी। बेटा बहू में कमियां हो सकती है। माता-पिता में भी। रिश्तों को जब प्यार और समझदारी से सिंचने का वक्त था तब आपने चालें चली और बातों का बतंगड़ बना कर रिश्तों को खोखला किया तो फिर जो बोया वहीं तो पाओगे। इससे इतर और क्या पाओगे?
अब एक मशहूर शेर जो दुष्यंत जी का लिखा हुआ है को कहकर मैं अपनी बात समाप्त करूंगी।
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश यह है कि सुरत बदलनी चाहिए।"
धन्यवाद
स्वरचित एवं मौलिक
What's Your Reaction?






