प्रेम पत्र

प्रेम पत्र

मेरी बालकनी की प्यारी कबूतरी,

 गुटर-गूँ 

सच तो यह है कि तुम मुझे बिल्कुल पसंद नहीं थीं...जहाँ-तहाँ बैठकर तुम बीट कर लेती थी। मेरी बालकनी मेरी न होकर जैसे तुम्हारी हो गई थी। बहुत गुस्सा आता था तुम पर। मेरे सब गमलों की मिट्टी तुम पंजों से कुरेद-कुरेद कर बाहर कर देती थीं। बस मिट्टी और बीट। आधिपत्य कर लिया था तुमने मेरी बालकनी पर।और तुम्हारी गुटर-गूँ, पौ फटने से पहले ही मुझे जगा देती थी और मुझे तुमपर बेहद गुस्सा आता।

परंतु गत वर्ष की एक सुबह आँखें मलते हुए जब मैंने खिड़की से बाहर झाँका...तो यह क्या????

एक झक सफेद अंडा मेरे गमले में। मेरी आँखें फटी की फटी रह गयीं,अब समझ में आया तुम क्यों इतना परेशान थीं ।एक ऐसी महफूज जगह की तलाश कर रही थीं जहाँ तुम अपने बच्चों को सुरक्षित रख सको। तभी मन में निश्चय कर लिया तुम्हें कोई परेशानी नहीं होने दूँगी।आखिर मैं भी तो एक माँ ठहरी।

अब मैं बालकनी में कम ही जाती जिससे तुम डरकर उडो ना। अगले दिन एक और अंडा देख मेरी आँखों में खुशी की चमक सी आ गई। मैं अपनी बालकनी के जाली वाले दरवाजे के अंदर से तुमसे रोज बातें करती है और तुम अपनी गर्दन हिला-हिला कर गुटर- गूँ करती हुई जैसे मुझे जवाब देतीं।

जाने कैसा रिश्ता बन गया था हम दोनों में।तुम ज्यादातर वक़्त अंडो के ऊपर ही बैठी रहतीं...घंटों-घंटों। मुझे टीस उठती...भूख लगी होगी, कुछ खाया कि नहीं। अब एक मुलायम सी चपाती तुम्हारे लिए भी सिकती।छोटे-छोटे टुकड़े कर रख देती गमले में। अब तुम्हारे दिल में भी यह भरोसा हो चला था कि तुम्हें,मुझसे कोई खतरा नहीं...इसलिए अब तुम भी न डरती थीं।

दिन बीतते जा रहे थे,जितनी व्याकुल तुम थीं अपने बच्चों का मुँह देखने के लिए उससे कहीं अधिक अधीर में थी। फिर एक खूबसूरत सुबह दो कोमल, मासूम, नन्ही सी जान अंडे में से निकलीं...

खुशी से चहक कर बोला था मैंने... मुबारक हो, तुम माँ और मैं मौसी बन गयी।अब तुम्हारे साथ मैं बच्चों का भी ध्यान रखने लगी... बच्चे नित अपना स्वरुप बदल रहे थें। उनमें से एक शांत और एक थोड़ा शैतान, जरूर वो शैतान बेटा ही होगा... हा हा हा...

एक रोज अचानक से काली बदरा घिर आयी... और तेज बारिश... तुम अपने दोनों बच्चों को अपने शरीर के नीचे समेट कर बारिश में भीग रही थी... माँ का दिल जो ठहरा... मेरे से न देखा गया... फ़ौरन एक लकड़ी का पट्टा रेलिंग पर टिका छत की छाया कर दी थी मैंने। बच्चों को बडा होता देख खुशी की अनुभूति सी होती दिल में..

अब बच्चे भी थोड़ा पंख फड़फड़ाने लगे थे... अभी उड़ तो नहीं पाते थे... हाँ गमले की चौड़ी मुंडेर पर फुदक-फुदक कर जरूर बैठ जाते... मैं उनकी शैतानियाँ, उनका आपस में झगड़ा बड़ी कौतुहलता से देखती.. और ठहाका लगा कर हँस देती...अब तुम्हारा आना कम हो गया था... बस अपने बच्चों का पेट भरने आती तुम...

 ऐसे में उनकी मौसी यानि मैं उनका ख्याल रखती... जैसे एक बार फिर से मातृत्व की सुखद अनुभूति का रसपान कर रही थी... बच्चें अब बड़े हो रहे थे ...उड़ जाते लेकिन शाम को अपने घर वापस आ जाते। मैं भी बार-बार बालकनी में झाँक कर देखती... आ गए क्या?

और एक दिन बच्चें जो गए... वापस ना आये... इंतज़ार करती ही रह गयी मैं....

लेकिन मैंने बहुत करीब से जिया इस खूबसूरत एहसास को... तब से अब तक न जाने कितनी ही डिलीवरी हो चुकी मेरे बालकनी में..मैंने अपनी बालकनी का नाम ही मैटरनिटी बालकनी रख दिया है...

परंतु जो खूबसूरत एहसास तुमने मुझे दिए... कभी नहीं भूल पाऊँगी उन्हें और तुम्हें भी..

 तुम्हारे बच्चों की मौसी

 ..रुचि मित्तल...

 

      

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