सपने जो कभी अपने थे

बंद दरवाज़ा बहुत कुछ बयां कर गया किसी के सपनो का महल यूँ धुआँ -धुआँ सा हो गया । रमाकान्त जी ने कब सोचा था की अपने ही शहर श्री नगर को छोड़ कर उन्हें रातों रात भागना होगा ।शहर छूटा घर छूटा पर मोह कँहा छूटा ।बन गये शरणार्थी । पर याद हमेशा ये घर रहा । आज बरसो बाद आए इसकी चौखट पर बैठ कर खूब रोये याद आई थी ।राधा भी जो घर छूटा तो बहुत रोई थी ।जो कल तक अपने थे वो आज पराये हो गये थे ।इस ग़म राधा जी ना पाई । अपनी बसी बसाई गृहस्थी उजड़ते देख कर सह ना पाई दुनिया ही छोड़ गई । शरणार्थी कैंप में बहुत दुःख देखे मन रो उठा । पर दिल्ली में एक दो रिश्तेदार थे ।
उन्होंने मदद की रहने को जगह दिलाई बच्चों की पढ़ाई सब कुछ धीरे -धीरे हो चला ।रमाकान्त जी भी एक कौलेज में संस्कृत पढ़ाने लगे । राधा का जाना उन्हें तोड़ गया था । पर भला हो राधा की छोटी बहन उमा का बच्चों को उसने सम्भाल लिया ।
वक्त के साथ धीरे -धीरे घाव भरने लगे ।रमाकांत जी के दोनो बेटे बड़े हो गये । बड़ा बेटा गिरीश आर्मी में सलेक्ट हुआ । छोटा बेटा हरीश भी अपने एक मित्र के साथ कपड़ों के व्यवसाय करने लगा । अब अपना घर भी बन गया तभी पता चला गिरीश की पोस्टिंग
श्री नगर में हुई हैं , रमाकान्त जी ख़ौफ़ में आ गए .. " नही गिरीश तुम नही जाओगे वँहा उस शहर ने हमसे बहुत कुछ छिन लिया मैं तुम्हें नही जाने दे सकता हूँ " पापा ! पहले आप बैठ जाओ । अब बहुत बदल गया "श्रीनगर "वो सब बीते समय की बात रह गईं । अब फ़िर से दुनिया का स्वर्ग बन गया ।आप बेवजह डर रहे हैं । ऐसा कीजिय आप भी चलिए मेरे साथ
क्यूँ पापा क्या कहते हैं आप ?? हरीश ने कहा पापा हम तीनो चलते हैं अपना घर भी देख लेंगे चलिए ना पापा .. प्लीज़ .. अब रमाकान्त जी को मानना पड़ा .. पहुँचते हुए वो वादियाँ वो हवायें सब अपनी सी हर ख़ुशबू जानी पहचानी सी आँख भर आई , पलाश के पेड़ ओह कितना सुंदर है मेरा शहर ।बिल्कुल पहले ... इतना बोलकर रुक गये रमाकान्त जी .. क्या हुआ पापा ? सब कुछ पहले जैसा ...
पर ये आर्मी वाले हर जगह एक छावनी सा बन गया । पापा अमन और शांति के लिये इनका रहना ज़रूरी हैं । अच्छा आप तो हमारा घर बताओ ना ... अरे ये वाला नीला गेट और नीले दरवाज़े तुम्हारी माँ राधा को नीले रंग पसंद थे । पर ये क्या ये तो सब काले हो गये पर पापा नेम्पलेट अभी भी देखो तो वही हैं "राधा - कुटीर " देखो ना पापा !
खँढहर से हो आए अपने सपनो के महल को देखकर रमा कांत जी रो पड़े पापा दरवाज़ा खोलूँ क्या ?? इतना बोलते ही हरीश ने दरवाज़े को छुआ की दरवाज़ा खुल ही गया खुले दरवाज़े ने ख़ौफ़नाक मंजर फ़िर दिखा दिया , थोड़ी देर तक रमाकांत जी देखते रहे ।
यहाँ राधा का मंदिर उधर चाय बना रही हैं ।राधा ....वो आवाज़ दे रहे हैं राधा हरीश को पकड़ो मुझे जाना हैं ..गिरीश अपने पापा के साथ स्कूल जाने को तैयार .. तभी वो सैलाब आया दुर से नूर भाई की आवाज़ आई रमाकान्त जी दरवाज़ा बंद कर लो आज शहर की तरफ़ मत जाना घर से बाहर मत निकलना । पर क्या हुआ सब कुछ लुट गया उसी रात शहर छोड़ना पड़ा । सब कुछ ख़त्म फूट -फूट कर रमाकान्त जी रो पड़े ।
पापा बस कीजिए ना देखिए कौन आया हैं ?? सर उठया रमाकान्त जी ने नूर भाई ! आप ?दोनो गले मिलकर अपने गुलिस्ताँ की बर्बादी पर रो पड़े । अब सब ठीक हैं ,हालत बदल गये हैं । अब फ़िर से अपना गुलिस्ताँ चमन सा हो गया हैं । अब हम आँसू क्यूँ बहाये ।
समय बदल गया रमाकान्त जी । आपका घर अभी भी हैं । बस नूर भाई !जिसने प्यार से सजाया था ,बस अब वो ही नही हैं । इसलिय इसे बंद ही रहने दो मत कुरेदो ज़ख्मों को घाव अभी भरे नही हैं .... अभी और वक्त लगेगा !!!!!
आँसू गिरे उस चौखट पर जो कभी उनका आशियाना था छोड़ गये हम घर अपना जँहा उम्र हमें बिताना था रमाकान्त जी ने दरवाज़ा बंद ही रहने दिया !!!!!
ये मेरे विचार हैं ...
आपकी
अल्पना !!!!
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