संवेदना

# मैं नहीं अंतर्यामी
मैं अंतर्यामी नहीं लेकिन
बिना अस्त्र और शस्त्र के
युद्ध का हो रहा मुझे आभास है
कहाँ छिपे हो कृष्ण तुम,
चहुँ ओर दिख रहा विनाश है
प्रलय काल की सीमा नहीं हो रही ज्ञात है
निराशा के अँधियारे के पीछे छिपा कहाँ प्रभात है
मैं अंतर्यामी नहीं लेकिन मेरा ये विचार है
करा दिया प्रकृति ने मानव का स्वयं से साक्षात्कार है
कर रही नहीं वो याचना
माँग रही अब रक्षा का वचन है
किया जो मनुष्य ने प्रक्रति का मान मर्दन है
कहना चाह रही प्रकृति हमसे कुछ खास है
हम सबको हो रहा धीरे-धीरे इसका एहसास है
लग रहा है कुछ ऐसा
मानो धरती माँ ने सबक़ सिखाया हो
अपने सब बच्चों को एक जैसा
मानवता के दायरे मानव ने ख़ुद तोड़े हैं
कितना भी अब करें प्रयास लगते अब थोड़े हैं
मैं अंतर्यामी नहीं लेकिन
करुणा निधि हैं प्रभु सृष्टि के, सबका ये विश्वास है
क्षमा याचना से हो सकता ,हर भूल का पश्चाताप है
कर्मानुसार भोग रहा है मानव अपना दंड
शांत करो अब हे शिव शंभु अपना क्रोध प्रचंड
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