शृंगार रस

मैं आम सी अर्धांगनी खास हो जाती हूँ जब तुम्हारा निर्लज, चुंबकिय, कामाग्नि से सराबोर स्पर्श मेरे एहसासों को उन्मुक्त करते मेरे तन-बदन से लिपट जाता है..
सुनों ज़रा हौले से छूना मेरे गुलाबी गालों के भीतर खून उबल जाता है..
अपार अगन का मेला है तुम्हारी छुअन
इतना न बरसों,
मेरी गरदन पर बैठा तिल जल जाता है,
उस मोहर की पूरी कहानी तौबा सारा जग जान जाता है...
घुल रही है मेरी साँसों में तुम्हारे स्पर्श की उष्मा, मैं उबलते पिघल रही हूँ,
हर इन्द्रियां मेरी मुझसे नाता तोड़ते तुम्हारे रचे प्रेमिल ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर रही है..
आतिश होते ही तुम्हारे अधरों से मेरी पीठ पर चुम्बन की
लहलहाते बुलबुले उठते है मेरी साँसों की रफ़्तार से..
प्रेमावली की लड़ियां बुनते मेरे कण-कण में व्याप्त होते काम मुझे रति का रुप दे जाता है..
मैं नखशिख अपने आराध्य को समर्पित होते घूँट-घूँट इश्क का दरिया पी रही हूँ, क्या जादू है तुम्हारे अभिमर्ष में
तिल-तिल टूटकर तुम्हारे आगोश को अपने तन का आशियां बनाते गुम हो जाती हूँ..
मेरे सीने पर तुम्हारा सर रखकर सोना
मेरी साँसों की रफ़्तार पर तुम्हारा टूटकर बरसना, जन्नत का पर्याय बन जाता है,
उफ्फ़ कितनी धनवान हो जाती हूँ तुम्हारी चाहत का कोष पाकर...
तुम्हारी ऊँगलियों की कशिश हर बार भ्रमित करते मेरे ठंडे एहसासों पर उन्माद की रंगत भर जाती है,
तुम्हारी नज़दीकियां पाते ही अपने आप में सिमटी मैं मुखर होते तुम्हारी रूह में समा जाती हूँ..
"तुम आग हो मैं मोम हूँ, तो बस पिघल जाती हूँ"
भावना ठाकर \"भावु\" बेंगुलूरु
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