स्त्री मन अकथ्य

स्त्री मन अकथ्य

शब्दों के समुन्दर में ताकत नहीं जो स्त्री मन की लहरों से टकरा कर उसके भीतर झिलमिलाते चिंगारीयों के अध्याय वर्णानुप्रास में कागज़ के सीने पर उकेर सकें। रानू मंडल से लेकर नीता अंबानी के मन तक का सफ़र कर लो, एक ऐसी स्त्री मिलेगी जो अपने भीतर एक गूँज लेकर फिरती है, अपनों की परवाह की गूँज।

अकथ्य है, असीम है, अमिट है नखशिख लदी ज़िम्मेदारीयों की गठरी में एक भी आँसू की टशर लबों की प्यास बनकर नहीं उभरती। नहीं जताती अपने परिवार की भीतरी वेदनाएं। सहती है, समझती है और जीवन की गुत्थियों से उलझी बखूबी एक-एक गांठ खोलते ज़िंदगी की चुनौतियों का जवाब देते हर गम को हंसी में बुन लेती है। अपने अरमानों को सहला कर सुला देती है अपनों की जरूरत के आगे। बच्चों की चाह पूरी करते दो साड़ी में भी साल भर निर्वाह कर लेती है। संतुष्टि का ड़कार लेते फिर भी हंसती रहती है। खोज लो स्त्री के भीतर झंझा का सैलाब ढूँढने से भी नहीं मिलेगा। 

मन के एक कोने में अपने सरताज की सारी खूबियाँ और कमियों को संजोकर रखती है, आँचल का एक कोना आरक्षण की तरह रखती है। ना... नहीं हारने देती अपने साथी को, अश्रु की हर बूंद को उस पल्लू में थाम लेती है। 

बच्चों की रीढ़ सी माँ हर वार झेल लेती है, उसके होते हिम्मत कहाँ होती है ज़िंदगी की, कि डाँवाडोल कर दे परिस्थितियों को।
कितने रुप में ढ़लती खो देती है खुद का अस्तित्व। पचासवा लगते ही कभी आईने के सामने खड़े होते जब बालों में उग आई चाँदी को देखती है, तब अहसास होता है घर की अवनी को। कि उम्र काट दी अपनों के सपनों को संवारने में अब थोड़ा खुद के लिए जिया जाए। पर नींव को कहाँ हक हल्का होने का, उम्र के आख़री पड़ाव में भी बढ़ता है बोझ। पोते-पोती और पति की सुश्रृसा को संभालने का। स्पृहा, स्पंदन, एहसास, दु:ख, दर्द, पीड़ा अनेक भावों के संमिश्रण से बनी स्त्री को एक ही भाषा से पहचान पाओगे, जो सीने में दिल रखते हो तो पहचान लो, 

ममता की मूरत, करुणा का सार, प्रेम की चरम और संसार रथ की धुरी यही है उस मूर्ति का नाम । समझ सको तो पहले समझ लो फिर लिख पाओ तो लिख लो,।शायद शब्दों में प्राण भर जाए और एक अध्याय समाप्त हो जाए। नारी मन को कचोटती संज्ञाओं को अर्थ मिल जाए।

(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु

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