सुबह तड़के ४ बजे वाली चाय

चाय रखी है भई , उठ जाओ । कड़क सुबह ४ बजे बैड के सिरहाने चाय का कप रखते हुए पापा के यही शब्द होते हैं हमेशा। माँ अपनी आँखों को थोड़ा मीड़ते हुए बस एक टुक घड़ी की ओर नज़र घूमातीं और कहतीं - कौन पिये तुम्हारी सुबह वाली ये ४ बजे की चाय , खुद तो जल्दी उठ जाते हैं ,मुझे और नहीं सोने देते। हमे नहीं पीनी। और मम्मी के पास में ही लेटी हुई मैं , हमेशा पापा को बोलती " पापा मुझे पीनी है और कहकर फिर सो जाती।
सालों से देखती आयी हूँ ,माँ पापा का सुबह सवेरे यूँ मीठी नोक झोक करना। भले ही माँ हर बार पापा की वो चार बजे वाली चाय न पीती हो , पर पापा ने कभी धीमे से बैड के सिराहने कप रखना नहीं छोड़ा।
आज मेरा चाय बनाने का मन नहीं , तुम बना कर पिलाओ। माँ कितने प्यार से पापा को बोलती और पापा एक पल भी नहीं लगाते एक बढ़िया चाय बनाने में। रसोई की ज़िम्मेवारी बहुत हद तक माँ के ही हिस्से रही , मगर घर की अनेकों ज़िम्मेदारियों में माँ कभी अकेली नहीं रहीं। सब्ज़ियां साफ़ करने में माँ का हाथ बटाना हो , घर को सुव्यव्स्तिथ रखना हो या होली दिवाली पर गुजिया और मिठाई बनाने हो , पापा हमेशा पूरे दिल से माँ का हाथ बंटाते हैं।
लैंगिग भेदभाव के आधार पर घर और बाहर के कामों को बाँट देना ,ये सब समाज के बनाये दोगले मापदंडों में से ही एक है। इस भेदभाव को और ज़्यादा विकसित करने का श्रेय एडवरटाइजिंग इंडस्ट्री को भी बहुत हद तक दिया जा सकता है - खानपान , मिर्च मसाले , अचार और रसोई से जुड़े ज़्यादातर उत्पाद के ब्रांड प्रमोशन में " Feminine एप्रोच को आगे रखा जाता है , विज्ञापनों में एक स्त्री को खाना बनाते हुए दिखाया जाता है , मसाले सुखाते , रसोई साफ़ करते दिखाया जाता है। टेलीविज़न एक ऐसा माध्यम है जो की कई अनुचित मापदंडों को लोगो के दिमाग में बिठा सकता है। बरसों से रंग भेद को बढ़ावा देते एक ब्यूटी ब्रांड का नाम बदलकर ग्लो एंड लवली रखा जाना इस बात का बहुत पारदर्शी उदाहरण है। बदलाव तो आ रहा है पर बहुत ही धीमी गति से।
ऐसे ही रसोई के उत्पाद और सामग्री के विज्ञापनों में केवल महिलाओं को रसोई सँभालते दिखाना भी कम होना चाहिए। क्यूंकि रसोई केवल माँ की नहीं माँ बाबा दोनों की होती है।
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