उसका जन्म ही उत्सव#स्त्री और उत्सव

उसका जन्म ही एक उत्सव है
वो ना हो तो उत्सव के क्या मायने
वो जो पहन लेती है पायल पैरों में
मैं अपनी ही हूँ ये भाव देती है ग़ैरों में
सजा लेती है मेहंदी हाथों में
ढूँढ लेती है जीवन चंद रिवाज़ो में
वो जो तय कर लेती है सफ़र
एक दहलीज से दूसरी दहलीज का
बँधनों को तोड़ बाँधती है बँधन
मान रख लेती है हर दहलीज का
एक ही जीवन में छोड़ देती है मोह
एक चौखट का और अपनाती है नई चौखट
एक तरफ मर्यादाओं से सजी रहती है
तो दूजी ओर रहती है नटखट
वो जिसके हाथों से सजते है आँगन
चहल-पहल होती है, खनकते हैं कंगन
वो जो थोड़े में भी भव्य अहसास देती है
हर क्षण में उत्सव सा सहवास देती है
वो जिसके होने से महकते हैं आँगन
जिसके सुरों से गूंजते हैं मधुबन
वो जिसके होने से रातों की लोरी है
जिसकी ममता में ज़िंदगी ही होरी है
वो जो हर पल को रंगों से सजाती है
साथ हो ग़र तो ज़िंदगी ख़ूब लुभाती है
जिसके होने से जीवन में चौथ का चांद है
जिसकी आभा में घर का वैभव और मान है
वो बेशक़ीमती दौलत वो घर की रौनक है
वो स्त्री है अपने आप में ही उत्सव है
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