ये ख़्वाब भी अब कुछ मुसाफ़िर से हो चले हैं #एक टुकड़ा बादल#BookGiveAwayContest#PoetryChallenge

ये ख़्वाब भी अब कुछ मुसाफ़िर से हो चले हैं
मिल गया है इन्हें एक टुकड़ा बादल का
होकर उसी पर सवार सारे ख़्वाब उड़ चले हैं
ज़िस्म अपने इन दीवारों से ही सटे हैं
मन के सभी ख़्वाब
इनके पार नई राह तक रहे हैं
तय कर चुके दो आँखों से दो आँखों तक का सफ़र
मेरी आँखों से रुखसत पा तेरी आँखों में ही पले हैं
ये ख़्वाब भी अब कुछ मुसाफ़िर से हो चले हैं...
तलब लग रही है मरीज़े-ख़्वाब को
एक टुकड़ा बादल की
होकर उस टुकड़े पर सवार
अंजाने सफ़र पर निकल चले हैं
थोड़े नर्म और ख़ुशदिल से हो चले हैं
ये ख़्वाब भी अब कुछ मुसाफ़िर से हो चले हैं...
ढूँढ़ रहे हैं मंज़िलें
पा रहे हैं कोई नई डगर
काफ़िला भी कुछ नया सा है
तय कर लिया है लंबा सफ़र
और कुछ बंजारे से हो चले हैं
ये ख़्वाब भी अब कुछ मुसाफ़िर से हो चले हैं...
छू रहे हैं पहाड़ों को
सख्त आलिंगन पहाड़ों का पाकर
दो घड़ी वहीं पिघल रहे हैं
लिपट रहे हैं चोटियों से
उन्हें चुमते ख़ुशशक्ल हो चले हैं
ये ख़्वाब भी अब कुछ मुसाफ़िर से हो चले हैं...
देख रहे हैं अपना अक्स
बहती नदी ठहरे तालों में
झूम रहे हैं लहरों संग
कांप रहे हैं उर्मियों में
बह कर सागर से जा मिले हैं
ये ख़्वाब भी अब कुछ मुसाफ़िर से हो चले हैं...
मिल गया है इन्हें एक टुकड़ा बादल का
होकर उसी पर सवार सारे ख़्वाब उड़ चले हैं
ये ख़्वाब भी अब कुछ मुसाफ़िर से हो चले हैं
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